________________
संत- परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सामग्गणापरूवणं
कथम् ? त्रिविधतीत्रादिककषायोदयवृत्तेः सत्त्वात् । सुगममन्यत् । तेजःपद्मलेश्याध्वानप्रतिप्रादनार्थमाह-
१, १, १३९. ]
तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया साण्ण-मिच्छाइट्टि पहुडि जाव
अप्पमत्तसंजदा त्तिं ॥ १३८ ॥
कथम् । एतेषां तत्रादिकषायोदयाभावात् । सुगममन्यत् । सुक्कलेस्सिया सष्णि मिच्च्छाइट्टि पहुडि जाव सजोगिकेवलित्तिं ॥ १३९ ॥
[ १९१
कथं क्षीणोपशान्तकषायाणां शुक्ललेश्येति चेन, कर्मलेपनिमित्तयोगस्य तत्र सत्रापेक्षया तेषां शुक्लेश्यास्तित्वाविरोधात् ।
शंका - चौथे गुणस्थानतक ही आदिकी तीन लेश्याएं क्यों होती हैं ?
समाधान - तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र कषायके उदयका सद्भाव चौथे गुणस्थानतक ही पाया जाता है, इसलिये वहाँतक तीन लेश्याएं कहीं। शेष कथन सुगम है । अब पति और पद्मलेश्या के गुणस्थान बतलाने के लिये सूत्र कहते हैं
पीतलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीव संज्ञी मिध्यादृष्टिले लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानतक होते हैं ॥ १३८ ॥
शंका- ये दोनों लेश्याएं सातवें गुणस्थानतक कैसे पाई जाती हैं ?
समाधान -- क्योंकि, इन लेश्यावाले जीवोंके तीव्रतम आदि कषायों का उदय नहीं पाया जाता है । शेष कथन सुगम है ।
अब शुक्ललेश्या के गुणस्थान बतलाने के लिये सूत्र कहते हैं
शुक्लेश्या वाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं ॥ १३९ ॥
शंका- जिन जीवोंकी कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गई है उनके शुक्ललेश्याका होना कैसे संभव है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, जिन जीवोंकी कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गई है उनमें कर्मलेपका कारण योग पाया जाता है, इसलिये इस अपेक्षासे उनके शुक्लेश्याके सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है ।
अब लेश्यारहित जीवोंके गुणस्थान बतलानेके लिये सूत्र कहते हैं
१ तेजः पद्मलेश्ययोमिथ्यादृष्टयादीनि अप्रमत्तस्थानान्तानि । स. सि. १.८.
२ शुक्ललेश्यायां मिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोग केवल्यन्तानि । स. सि. १. ८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org