Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १३६. तत्केवलकार्याद्वयतिरिक्तस्योपलम्भात् । संसारवृद्धिहेतुलेश्येति प्रतिज्ञायमाने लिम्पतीति लेश्येत्यनेन विरोधश्चेन्न, लेपाविनाभावित्वेन तवृद्धरपि तद्वयपदेशाविरोधात् । ततस्ताभ्यां पृथग्भूता लेश्येति स्थितम् । षड्विधः कषायोदयः। तद्यथा, तीव्रतमः तीव्रतरः तीव्रः मन्दः मन्दतरः मन्दतम इति । एतेभ्यः षड्भ्यः कषायोदयेभ्यः परिपाट्या षड् लेश्या भवन्ति । कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या पीतलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या चेति । उक्तं च--
चंडो ण मुयदि वेरं भंडण-सालो य धम्म-दय-रहिओ । दुट्ठो ग य एदि वसं लक्खणमेदं तु किण्हस्स' ॥ २०० ॥ मंदो बुद्धि-विहीणो णिविण्णाणी य विसय-लोलो य । माणी मायी य तहा आलस्सो चेय भेज्जो य' ॥ २०१ ॥
है जो केवल योग और केवल कषायका कार्य नहीं कहा जा सकता है, इसलिये लेश्या उन दोनोंसे भिन्न है यह बात सिद्ध हो जाती है।।
__ शंका-संसारकी वृद्धिका हेतु लेश्या है ऐसी प्रतिज्ञा करने पर 'जो लिप्त करती है उसे लेश्या कहते हैं ' इस वचनके साथ विरोध आता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, कर्मलेपकी अविनाभावी होने रूपसे संसारकी वृद्धिको भी लेश्या ऐसी संज्ञा देनेसे कोई विरोध नहीं आता है। अतः उन दोनोंसे पृथग्भूत लेश्या है यह बात निश्चित हो जाती है।
कषायका उदय छह प्रकारका होता है। वह इसप्रकार है, तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम । इन छह प्रकारके कषायके उदयसे उत्पन्न हुई परिपाटीकमसे लेश्या भी छह हो जाती हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । कहा भी है
तीव, क्रोध करनेवाला हो, वैरको न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दयासे रहित हो, दुष्ट हो और जो किसीके वशको प्राप्त न हो, ये सब कृष्णलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥२०॥
मन्द अर्थात् स्वच्छन्द हो अथवा काम करनेमें मन्द हो, वर्तमान कार्य करने में विवेक रहित हो, कला-चातुर्यसे रहित हो, पांच इन्द्रियोंके स्पर्शादि बाह्य विषयों में लम्पट हो, मानी हो, मायावी हो, आलसी हो, और भीरू हो, ये सब भी कृष्णलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥ २०१॥
१गो. जी. ५०९. पंचासवप्पवतो तीहि अगुत्तो छK अविरओ य । तिव्वारम्भपरिणओ खुड्डो साहसिओ नरो ॥ निधसपरिणामो निस्संसो अजिइंदिओ। एयजोगसमाउत्तो किण्हलेसं तु परिणमे ॥ उत्त. ३४. २१-२२. . २ गो. जी. ५१०.
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