Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३८२ ] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, १३१. व्यपदेशान्न दर्शनस्य चातुर्विध्यनियमः । यावन्तश्चक्षुरिन्द्रियक्षयोपशमजनितज्ञानस्य विषयभावमापन्नाः पदाथास्तावन्त एवात्मस्थक्षयोपशमास्तत्तन्नामानस्तद्वारेणात्मापि तावानेव तच्छक्तिखचितात्मपरिच्छित्तिदर्शनम् । न चैतत्काल्पनिकं परमार्थत एव परोपदेशमन्तरण शक्त्या सहात्मन: उपलम्भात् । न दर्शनानामक्रमेण प्रवृत्तिानानामक्रमेणोत्पत्त्यभावतस्तदभावात् । एवं शेपदर्शनानामपि वक्तव्यम् । ततो न दर्शनानामेकत्वमिति उक्तं च
चक्रवण जं पयासदि दिस्सदि तच्चक्खु-दसणं वेंति । सेसिंदिय-प्पयासो णादयो सो अचक्खु ति' ॥ १९५ ॥ परमाणु-आदियाई अतिम-वधं ति मुत्ति-दव्वाई। तं ओधि-दसणं पुण जे पस्सइ ताइ पच्चक्वं ॥ १९६ ।। बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिमियम्हि खेत्तम्हि । लोगालोग-अतिमिरा जो केवलदसणुज्जोयो ॥ १९७ ॥
स्वरूपसंवेदन है उसको उसी नामका दर्शन कहा जाता है। इसलिये दर्शनके चार प्रकारके होनेका कोई नियम नहीं है । चक्षु इन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए ज्ञानके विषयभावको प्राप्त जितने पदार्थ हैं उतने ही आत्मामें स्थित क्षयोपशम उन उन संज्ञाओंको प्राप्त होते हैं। और उनके निमित्तसे आत्मा भी उतने ही प्रकारका हो जाता है। अतः इस प्रकारकी शक्तियोंसे युक्त आत्माके संवेदन करनेको दर्शन कहते है। यह सब कथन काल्पनिक भी नहीं है, क्योंकि, परोपदेशके विना अनेक शक्तियोंसे युक्त आत्माकी परमार्थसे उपलब्धि होती है। सभी दर्शनोंकी अक्रमसे प्रवृत्ति होती है सो बात भी नहीं है, क्योंकि, झानोंकी एकसाथ उत्पत्ति नहीं होती है, अतः संपूर्ण दर्शनोंकी भी एकसाथ उत्पत्ति नहीं होता है। इसीप्रकार शेष दर्शनोंका भी कथन करना चाहिये । इसलिये दर्शनोंमें एकता अर्थात् अभेद सिद्ध नहीं हो सकता है । कहा भी है. जो चक्षु इन्द्रियके द्वारा प्रकाशित होता है अथवा दिखाई देता है उसे 'चक्षुदर्शन कहते हैं। तथा शेष इन्द्रिय और मनसे जो प्रतिभास होता है उसे अच दर्शन कहते हैं ॥१९॥
परमाणुसे आदि लेकर अन्तिम स्कन्धपर्यन्त मूर्त पदार्थोंको जो प्रत्यक्ष देखता है उसे भवधिदर्शन कहते हैं ॥१९॥
अपने अपने अनेक प्रकारके भेदोंसे युक्त बहुत प्रकारके प्रकाश इस परिमित क्षेत्रमें ही पाये जाते हैं। परंतु जो केवल दर्शनरूपी प्रकाश है वह लोक और अलोकको भी तिमिर रहित कर देता है ॥१९७॥
१ गो. जी. ४८४. २ गो.जी. ४८५. ३ गो. जी. ४८६.
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