Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १२६ ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे संजममग्गणापरूवणं
सुगमत्वादत्र न किञ्चिद्वक्तव्यमस्ति । द्वितीयसंयमस्याध्वाननिरूपणार्थमाह
परिहार- सुद्धि-संजदा दोसु ट्टाणेसु पमत्तसंजद द्वाणे अप्पमत्तसंजद-हाणे ॥ १२६ ॥
उपरिष्टात्किमित्ययं संयमो न भवेदिति चेन्न, ध्यानामृतसागरान्तर्निमग्नात्मनां वाचंयमानामुपसंहृतगमनागमनादिकायव्यापाराणां परिहारानुपपत्तेः । प्रवृत्तः परिहरति नाप्रवृत्तस्ततो नोपरिष्टात्संयमोऽस्ति । परिहारशुद्धिसंयतः किमु एकयम उत पंचयम इति ? किंचातो यद्येकयमः सामायिकेऽन्तर्भवति । अथ यदि पंचयमः छेदोपस्थापनेsन्तर्भवति ? न च संयममादधानस्य पुरुषस्य द्रव्यपर्यायार्थिकाभ्यां व्यतिरिक्तस्यास्ति सम्भवस्ततो न परिहारसंयमोऽस्तीति न परिहारर्द्धयतिशयोत्पच्यपेक्षया ताभ्यामस्य कथञ्चिद्भेदात् । तद्रूपापरित्यागेनैव परिहारर्द्धिपर्यायेण परिणतत्वान्न ताभ्यामन्योऽयं -
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इस सूत्र का अर्थ सुगम होनेसे यहां कुछ विशेष कहने योग्य नहीं है । अब दूसरे संयम गुणस्थानोंके निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैंपरिहार-शुद्धि-संयत प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में होते हैं ॥ १२६ ॥ शंका - ऊपर के आठवें आदि गुणस्थानों में यह संयम क्यों नहीं होता है ?
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समाधान - - नहीं, क्योंकि, जिनकी आत्माएं ध्यानरूपी अमृतके सागर में निमग्न हैं, जो वचन - यम (मौन) का पालन करते हैं और जिन्होंने आने जानेरूप संपूर्ण शरीरसंबन्धी व्यापार संकुचित कर लिया है ऐसे जीवों के शुभाशुभ क्रियाओंका परिहार बन ही नहीं सकता है । क्योंकि, गमनागमन आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करनेवाला ही परिहार कर सकता है, प्रवृत्ति नहीं करनेवाला नहीं। इसलिये ऊपर के आठवें आदि ध्यान अवस्थाको प्राप्त गुणस्थानोंमें परिद्वार-शुद्धि-संयम नहीं बन सकता है ।
शंका - परिहार-शुद्धि-संयम क्या एक यमरूप है या पांच यमरूप ? इनमेंसे यदि एक यमरूप है तो उसका सामायिक में अन्तर्भाव होना चाहिये और यदि पांच यमरूप है तो छेदोपस्थापना में अन्तर्भाव हो जाना चाहिये । संयमको धारण करनेवाले पुरुषके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा इन दोनों संयमों से भिन्न तीसरे संयमकी संभावना तो है नहीं, इसलिये परिहार-शुद्धि-संयम नहीं बन सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, परिहार ऋद्धिरूप अतिशयकी उत्पत्तिकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थानासे परिहार-शुद्धि-संयम का कथंचित् भेद है ।
शंका - सामायिक और छेदोपस्थापनारूप अवस्थाका त्याग न करते हुए ही परिहार ऋद्धिरूप पर्यायसे यह जीव परिणत होता है, इसलिये सामायिक और छेदोपस्थापनासे भिन्न
१ परिहार शुद्धिसंयताः प्रमत्ताप्रमत्ताश्र । स. सि. १.८.
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