Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 492
________________ १, १, १२३. ] सत-प संत-परूवणाणुयोगद्दारे संजममग्गणापरूवणं अणुलोभं वेदंतो जीवो उवसामगो व खवओ वा । सो सुहुम-सांपराओ जहक्खादेणूणओ किं पि' ॥ १९० ॥ उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोइणीयम्हि । छदुमत्यो व जिणो वा जहक्खादो संजदो सो हु ॥ १९१ ।। पंच-ति-चउव्विहहिं अणु-गुण-सिक्खा-वएहिं संजुत्ता। वुच्चंति देस-विरया सम्माइट्ठी ज्झरिय-कम्मा ॥ १९२ ॥ दंसण-वय-सामाइय-पोसह-सचित्त-राइभत्ते य ।। बम्हारंभ-परिग्गह-अणुमण-उद्दिष्ट देस-विरदेदें ॥ १९३ ॥ जीवा चोदस-भेया इंदिय-विसया तहट्टवीसं तु। जे तेसु णेव विरदा असंजदा ते मुणेयव्वा ॥ १९४ ॥ चाहे उपशमश्रेणीका आरोहण करनेवाला हो अथवा क्षपकश्रेणीका आरोहण करनेवाला हो, परंत जो जीव सक्षम लोभका अनुभव करता है उसे सूक्ष्मसापरायकहते हैं । यह संयत यथाख्यात संयमसे कुछ कम संयमको धारण करनेवाला होता है। १९०॥ __अशुभ मोहनीय कर्मके उपशान्त अथवा क्षय हो जाने पर ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान. वर्ती छद्मस्थ और तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिन यथाख्यात-शुद्धि-संयत होते हैं ॥१९१॥ जो पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावतोंसे संयुक्त होते हुए असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करते हैं ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत कहे जाते हैं ॥ १९२॥ दर्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तविरत, ब्रह्मचारी, आरंभविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये देशविरतके ग्यारह भेद हैं ॥१९३॥ जीवसमास चौदह प्रकारके होते हैं और इन्द्रिय तथा मनके विषय अट्ठाईस प्रकारके होते हैं । जो जीव इनसे विरत नहीं हैं उन्हें असंयत जानना चाहिये ॥ १९४॥ पंचण्ह वि एगो संभोगो ॥ ३९५ ॥ परिहारिओ छम्मासे अणुपरिहारिओ वि छम्मासा। कापट्टितो वि छम्मासे तेए अट्ठारस उ मासे ।। ३९६ ॥ गरहिं छहिं मासेहिं निधिहा य भवति ते । ततो पच्छा य ववहारं पति अशुपरिहारिया ॥ ३९८ ॥ गएहि छहिं मासेहिं निविट्ठा य भवंति ते । वहइ कपाहिओ पच्छा परिहार तहाविधं ॥ ३९९ ।। अट्ठारसहिं मासे हि कप्पो होति समाणितो। मलदुवणाए समं छम्मासा उ अणूणगा ।। ४०० ॥ बु. ६ उ. (अभि. रा. को. परिहारविसद्धिय.) १ गो. जी. ४७४. २ गो. जी. ४७५. ३ गो. जी. ४७६. ४ गाथेयं पूर्वमपि ७४ गाथाङ्कन आगता। . ५ गो. जी. ४७८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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