Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 491
________________ ३७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १२३. प्रधानवनान्तस्थनिम्बानामपि आम्रवनव्यपदेशदर्शनतोऽनेकान्तात् । उक्तं च संगहिय सयल-संजममेय-जममणुत्तरं दुरवगम्मं । जीवो समुव्वहंतो सामाइय-संजदो होई ॥१८७ ।। छत्तण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्मे सो छेदोवढावओ जीवो ॥१८८ ।। पंच-समिदो ति-गुत्तो परिहरइ सदा वि जो हु सावजं । पंच-जमेय-जमो वा परिहारो संजदो सो हु ॥ १८९ ।। समाधान-नहीं, क्योंकि, जिस वनमें आम्रवृक्षोंकी प्रधानता है उसमें रहनेवाले नीमके वृक्षोंकी भी 'आम्रवन' ऐसी संज्ञा देखने में आती है। अतएव अनेकान्तका आश्रय करनेसे संयतासंयत और असंयतोंका भी संयम मार्गणामें ग्रहण किया है। कहा भी है जिसमें समस्त संयमोंका संग्रह कर लिया गया है ऐले लोकोत्तर और दुरधिगम्य अभेदरूप एक यमको धारण करनेवाला जीव सामायिकसयत होता है ॥ १८७ ॥ जो पुरानी सावधव्यापाररूप पर्यायको छेदकर पांच यमरूप धर्ममें अपनेको स्थापित करता है वह जीव छेदोपस्थापक संयमी कहलाता है ॥ १८८ ॥ जो पांच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त होता हुआ सदा ही सावद्ययोगका परिहार करता है तथा पांच यमरूप छेदोपस्थापना संयमको और एक यमरूप सामायिकसय धारण करता है वह परिहार-शुद्धि-संयत कहलाता है ॥ १८९ ॥ मका १ गो. जी. ४७०. २ गो. जी. ४७१. छेदेन प्रायश्चित्ताचरणेन उपस्थापनं यस्य स छेदोपस्थापन इति निरुत्तोः। अथवा प्रायश्चित्तेन स्वकृतदोषपरिहाराय पूर्वकृततपस्तदोषानुसारेण छित्वा आत्मानं तन्निरबद्यसंयमे स्थापयति स छेदोपस्थापक. संयतः, स्वतपश्छेदे सति उपस्थापनं यस्य स छेदोपस्थापन इत्यधिकरणव्युत्पत्तेः । जी. प्र. टी. ३ गो. जी. ४७२. परिहारकप्पं पवक्खामि परिहरति जहा विऊ । आदिमझवसाणेसु आणुपुर्वि जह. कम ॥३६९॥ सत्तावीसं जहण्णेण उक्कोसेण सहस्ससो। निग्गंथसूरा भगवंतो सव्वग्गोणं वियाहिया ।। ३७२ ॥ सयग्गली य उक्कोसा जहण्णेणं तओ गणा। गणो य णवओ वुत्तो एमेता पडियत्तिओ ॥ ३७३ ॥ एग कप्पट्टियं कुजा चत्तारि परिहारिए | अणुपरिहारिगा चेव चउरो तेसिं तु ठावए ॥ ३७४ || ण य तेमि जायती विग्धं जा मासा दस अट्ठ य । ण वेयणा ण वातंका व अण्णे उवद्दवा ॥ ३७५ ॥ अदारसस पुणेस. होज एते उवद्दवा। ऊणिए ऊणिए यावि गणमेरा इमा भवे ॥ ३७६ ॥ पडिवन्नजिणिंदस्स पादमलम्मि जे विऊ। ठावयंतिआ ते अपणे ण उ ठावितठावगा॥ ३८३ ॥ सव्वे चरितमंता य दंसणे परिनिटिया । णबपुब्बिया जहण्णेणं उकोसं दसपुत्रिया ॥ ३८४ ॥ पंचविहे ववहारे कप्पे ते दुविहम्मि य । दसविहे य पच्छित्ते सव्वे वि परिनिटिया ।। ३८५ ॥ पडिपुच्छं वायं णं मोत्तणं णथि संकहा । आलावो अत्ताणिद्देसो परिहारस्स कारणे || ३९६ ॥ वारस दसह दस अट्ट छच्च छ चउरो य उक्कोसे । मझिम जलगा ऊ वासासिसिरगिम्हे उ ।। ३९४ ॥ आयंबिलवारसगं पत्तेयं परिहारगा परिहरति । आभिगहितएसणाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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