Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १२३.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे संजममग्गणापरूवणं
[३७१ विशेषात्समुत्पन्नपरिहारर्द्धिस्तीर्थकरपादमूले परिहारशुद्धिसंयममादत्ते । एवमादाय स्थानगमनचक्रमणाशनपानासनादिषु व्यापारेष्वशेषप्राणिपरिहरणदक्षः परिहारशुद्धिसंयतो नाम ।
साम्परायः कषायः, सूक्ष्मः साम्परायो येषां ते सूक्ष्मसांपरायाः । शुद्धाश्च ते संयताश्च शुद्धसंयताः । सूक्ष्मसाम्परायाश्च ते शुद्धिसंयताश्च सूक्ष्म साम्परायशुद्धिसंयताः । त एव द्विधोपात्तसंयमा यदा सूक्ष्मीकृतकषायाः भवन्ति तदा ते सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयता इत्युच्यन्त इति यावत् ।
यथाख्यातो यथाप्रतिपादितः विहारः कषायाभावरूपमनुष्ठानम् । यथाख्यातो विहारो येषां ते यथाख्यातविहाराः । यथाख्यातविहाराश्च ते शुद्धिसंयताश्च यथाख्यातविहारशुद्धिसंयताः । सुगममन्यत् ।
संयमानुवादेनासंयतानां संयतासंयतानां च न ग्रहणं प्राप्नुयादिति चेन्न, आम्रतरु.
तपोविशेषसे परिहार ऋद्धिको प्राप्त कर लिया है ऐसा जीव तीर्थकरके पादमूलमें परिहारशुद्धि-संयमको ग्रहण करता है । इसप्रकार संयमको धारण करके जो खड़े होना, गमन करना यहां वहां विहार करना, भोजन करना, पान करना और बैठना आदि संपूर्ण व्यापारोंमें प्राणियोंकी हिंसाके परिहारमें दक्ष हो जाता है उसे परिहार-शुद्धि-संयत कहते हैं।
सांपराय कषायको कहते हैं। जिनकी कवाय सूक्ष्म हो गई है उन्हें सूक्ष्मसांपराय कहते हैं । जो संयत विशुद्धिको प्राप्त हो गये हैं उन्हें शुद्धिसंयत कहते हैं । जो सूक्ष्मकषायवाले होते हुए शुद्धिप्राप्त संयत हैं उन्हें सूक्ष्मसांपराय-शुद्धि-संयत कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि सामायिक या छेदोपस्थापना संयमको धारण करनेवाले साधु जब अत्यन्त सूक्ष्मकषायवाले हो जाते हैं तब वे सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयत कहे जाते हैं।
परमागममें विहार अर्थात् कषायोंके अभावरूप अनुष्ठानका जैसा प्रतिपादन किया गया है तदनुकूल विहार जिनके पाया जाता है उन्हें यथाख्यातेविहार कहते हैं । जो यथाख्यातविहारवाले होते हुए शुद्धिप्राप्त संयत हैं वे यथाख्यातविहार-शुद्धि-संयत कहलाते हैं। शेष कथन सुगम है।
शंका-संयम मार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें संयतासंयत और असंयतोंका ग्रहण नहीं हो सकता है?
१ तास वासो जम्मे वासपुंधत्तं खु तित्थयरमूले । पञ्च वाण पटिदो सैणदुगाउयविहारो ।। गो. जी. ४७३.
२ परिहारार्थसमेतः षड्जीवनिकायसंकुले विहरन् । पयसेत्र पद्मपत्रं न लिप्यते पापनिवहेन ॥ गो. जा. ४७३. नी. प्र. टी. उदधृतम् ।
३ अहसदो जाहत्थे आडोऽभिहीए कहियमक्खायं । चरणमकसायमुदितं तमहक्खायं जहक्खाय ॥ तं दुविगप्पं छउमथकेवालविहाणओ पुणेकेक । खयसमजसयोगाजोगिकेवलिविहाणओ दुविहं । वि. भा. १२७९.
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