Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 493
________________ छक्खंडागमे जीवाणं संयतानां गुणस्थानानां संख्यानिरूपणार्थमाह संजदा पमत्तसजद - पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्तिं ॥ १२४॥ अथ स्याद् बुद्धिपूर्विका सावद्यविरतिः संयमः, अन्यथा काष्ठादिष्वपि संयम - प्रसङ्गात् । न च केवलीषु तथाभूता निवृत्तिरस्ति ततस्तत्र संयमो दुर्घट इति नैष दोषः, अघातिचतुष्टयविनाशापेक्षया समयं प्रत्य संख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरापेक्षया च सकलपापक्रियानिरोधलक्षणपारिणामिकगुणाविर्भावापेक्षया न, तत्र संयमोपचारात् । अथवा प्रवृत्त्यभावापेक्षया मुख्यसंयमेोऽस्ति । न काष्ठेन व्यभिचारस्तत्र प्रवृत्त्यभाव - तस्तन्निवृत्त्यनुपपत्तेः । सुगममन्यत् । द्रव्यपर्यायार्थिकनयद्वयनिबन्धन संयमगुणप्रतिपादनार्थमाहसामाइय-च्छेदोवद्वावण-सुद्धि-संजदा पमत्तसंजद पहुडि जाव अणियाति ॥ १२५॥ ३७४ ] --- अब संयतों में गुणस्थानोंकी संख्या के निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैंसंयत जीव प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक होते हैं ॥ १२४ ॥ शंका - बुद्धिपूर्वक सावद्ययोगके त्यागको संयम कहना तो ठीक है । यदि ऐसा न माना जाय तो काठ आदिमें भी संयमका प्रसंग आजायगा । किंतु केवली में बुद्धिपूर्वक सावद्ययोगकी निवृत्ति तो पाई नहीं जाती है इसलिये उनमें संयमका होना दुर्घट ही है ? समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चार अघातिया कर्मों के विनाश करनेकी अपेक्षा और समय समय में असंख्यातगुणी श्रेणीरूपसे कर्मनिर्जरा करने की अपेक्षा संपूर्ण पाप-क्रिया के निरोधस्वरूप पारिणामिक गुण प्रगट हो जाता है, इसलिये इस अपेक्षासे वहां संमयका उपचार किया जाता है। अतः वहां पर संयमका होना दुर्घट नहीं है । अथवा प्रवृत्तिके अभावकी अपेक्षा वहां पर मुख्य संयम है। इसप्रकार जिनेन्द्र में प्रवृत्यभावसे मुख्य संयमकी सिद्धि करने पर काष्ठसे व्यभिचार दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, काष्टमें प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है, तब उसकी निवृत्ति भी नहीं बन सकती है। शेष कथन सुगम है 1 [ १, १, १२४. अब द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंके निमित्तसे माने गये संयम के गुणस्थान प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं । सामायिक और छेदोपस्थापनारूप शुद्धिको प्राप्त संयत जीव प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतक होते हैं ॥ १२५ ॥ Jain Education International १ संयमानुवादन संयताः प्रमत्तादयोऽयोगकेवल्यन्ताः । स. सि. १.८० १ सामायिकच्छेदोपस्थापना शुद्धिसंयताः प्रमत्तादयोऽनिवृत्तिस्थानान्ताः । स. सि. १.८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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