Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ६०.] संत-पख्वणाणुयोगद्दोर जोगमग्गणापरूवणं
[ ३०१ कथमस्य घातस्य समीचीनत्वमिति चेन्न, भूयः कालनिष्पाद्यमानघातेभ्योऽस्यैकसमयिकस्य समीचीनत्वाविरोधात् । समुद्धातं गताः समुद्धातगताः । कथमेकस्मिन् गम्यगमकभावश्चेन्न, पर्यायपर्यायिणां कथंचिद् भेदविवक्षायां तदविरोधात् । तेषां समुद्धातगतानां केवलिनां कार्मणकाययोगो भवेत् । वा शब्दः समुच्चयप्रतिपादकः।
अथ स्यात्केवलिनां समुद्धातः' सहेतुको निर्हेतुको वा ? न द्वितीयविकल्पः, सर्वेषां समुद्धातगमनपूर्वकं मुक्तिप्रसङ्गात् । अस्तु चेत्र, लोकव्यापिनां केवलिनां विंशतिसंख्यावर्षपृथक्त्वानन्तरनियमानुपपत्तेः । न प्रथमपक्षोऽपि तद्वेत्वनुपलम्भात् । न
शंका - इस घालमें समीचीनता है, यह कैसे संभव है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, बहुत कालमें संपन्न होनेवाले घातोंसे एक समयमें होनेवाले इस घातमें समीचीनताके मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
समुद्धातको प्राप्त जीवोंको समुद्धातगत जीव कहते हैं।
शंका-एक ही पदार्थमें गम्य-गमकभाव कैसे बन सकता है, अर्थात् जब पर्यायांसे पर्याय आभिन्न है, तब केवली समुद्धातको प्राप्त होते हैं, इसप्रकार समुद्रात और केवलीमें गम्यगंमकभाव कैसे बन सकता है ? ।
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पर्याय और पर्यायीकी कथंचित् भेदविवक्षा होने पर एक ही पदार्थमें गम्य-गमकभाव बन जाता है, इसमें कोई विरोध नहीं आता है।
उन समुद्धातगत केवलियोंके कार्मणकाययोग होता है। यहां सूत्रमें आया हुआ 'वा' शब्द समुच्चयरूप अर्थका प्रतिपादक है।
शंका - केवलियोंके समुद्धात सहेतुक होता है या निर्हेतुक ? निर्हेतुक होता है, यह दूसरा विकल्प तो बन नहीं सकता, क्योंकि, ऐसा मानने पर सभी केवलियोंको समुद्धात करनेके अनन्तर ही मोक्ष प्राप्तिका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। यदि यह कहा जावे कि सभी केवली समुद्धातपूर्वक ही मोक्षको जाते हैं, ऐसा मान लिया जावे इसमें क्या हानि है ? सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर लोकपूरण समुद्धात करनेवाले केवलियोंकी वर्ष-पृथक्त्वके अनन्तर वीस संख्या होती है यह नियम नहीं बन सकता है। केवलियोंके
हंतेर्गमिक्रियात्वात्संभूयात्मप्रदेशानां च बहिरुद्रमनं समुद्धातः । त. रा बा. पृ. ५३. उद्गमनमुद्धातः, जीवप्रदेशान विसर्पणमित्यर्थः । समीचीन उद्धातः समुद्रातः, केवलिनां समुद्धातः केवलिसमुद्धातः। अघातिकर्म स्थितिसमीकरणार्थ केवलिजीवप्रदेशानां समयाविरोधेन ऊर्चमधस्तिर्यक् च विसर्पणं केवलिसमुद्धात इत्युक्तं भवति । जयध. अ. पृ. १२३८.
१ वेदनीयस्य बहुत्वादल्पत्वाच्चायुषो नाभोगपूर्वकमायुःसमकरणार्थं द्रष्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगवुद्वुदाविभीवोपशमनवदेहस्थात्मप्रदेशाना बहिः समुद्भातनं केवलिससुद्धातः । त. रा. वा. पृ. ५३.
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