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३६४] लखंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १२०. तस्मादनन्तगुणहीनशक्तेस्तस्य विपरीताभिनिवेशोत्पादसामर्थ्याभावात् । नापि सम्यक्त्वं तस्मादनन्तगुणशक्तेस्तस्य यथाथेश्रद्धया साहचयांविरोधात । ततो जात्यन्तरत्वात सभ्यग्मिथ्यात्वं जात्यन्तरीभूतपरिणामस्योत्पादकम् । ततस्तदुदयजनितपरिणामसमवेतबोधो न ज्ञानं यथार्थश्रद्धयाननुविद्धत्वात् । नाप्यज्ञानमयथार्थश्रद्धयाऽसङ्गतत्वात् । ततस्तज्ज्ञानं सम्यग्मिथ्यात्वपरिणामवज्जात्यन्तरापन्नमित्येकमपि मिश्रमित्युच्यते । यथायथं प्रतिभासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमो ज्ञानम् । यथायथमप्रति भासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमोऽज्ञानम् । जात्यन्तरीभूतप्रत्ययानुविद्धावगमो जात्यन्तरं ज्ञानम् , तदेव मिश्रज्ञानमिति राद्धान्त विदो व्याचक्षते ।
साम्प्रतं ज्ञानानां गुणस्थानाध्धानप्रतिपादनार्थमाह -
आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणमसंजदसम्माइट्टिप्पहुडि जाव खीणकसाय-वीदराग-छदुमत्था ति ॥ १२० ॥
तो हो नहीं सकता, क्योंकि, उससे अनन्तगुणी हीन शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्वमें विपरीता. भिनिवेशको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य नहीं पाई जाती है। और न वह सम्यकप्रकृतिरूप ही है, क्योंकि, उससे अनन्तगुणी अधिक शक्तिवाले उसका (सम्यग्मिथ्यात्वका ) यथार्थ श्रद्धाके साथ साहचर्यसंबन्धका विरोध है । इसलिये जात्यन्तर होनेसे सम्यग्मिथ्यात्व जात्यन्तररूप परिणामोंका ही उत्पादक है । अतः उसके उदयसे उत्पन्न हुए परिणामोंसे युक्त ज्ञान 'झान' इस संज्ञाको तो प्राप्त हो नहीं सकता है, क्योंकि, उस ज्ञानमें यथार्थ श्रद्धाका अन्वय नहीं पाया जाता है। और उसे अज्ञान भी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि, वह अयथार्थ श्रद्धाके साथ संपर्क नहीं रखता है। इसलिये वह ज्ञान सम्यग्मिथ्यात्व परिणामकी तरह जात्यन्तररूप अवस्थाको प्राप्त है । अतः एक होते हुए भी मिश्र कहा जाता है।
___ यथावस्थित प्रतिभासित हुए पदार्थके निमित्तसे उत्पन्न हुए तत्संबन्धी बोधको शान कहते हैं। न्यूनता आदि दोषोंसे युक्त यथावस्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थके निमित्तसे उत्पन्न हुए तत्संबन्धी बोधको अज्ञान कहते हैं। और जात्यन्तररूप कारणसे उत्पन्न हुए तत्संबन्धी ज्ञानको जात्यन्तर-ज्ञान कहते हैं। इसीका नाम मिश्रज्ञान है ऐसा सिद्धान्तको जाननेवाले विद्वान् पुरुष व्याख्यान करते हैं।
अब शानोंका गुणस्थानोंमें विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं
आभिनिबोधिकहान, श्रुतज्ञान और अवधिशान ये तीनों असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय-वीतराग छमस्थ गुणस्थानतक होते हैं ॥ १२० ॥
आमिनिबोधिकश्रतावधिज्ञानेषु असंयतसम्यग्दष्टवादीनि क्षणिकषायान्तानि सन्ति । स. सि.१.८.
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