Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३६६) छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, १, १२१. परिहार-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यात-भेदभिन्नैः पञ्चभिरपि संयमैः देशविरत्या च तस्य व्यभिचारदर्शनानावधिज्ञानं संयमविशेषनिबन्धनमपीति समानमेतत् । असंख्यातलोकमात्रसंयमपरिणामेषु केचिद्विशिष्टाः परिणामास्तद्धे तव इति नायं दोषश्चेतर्हि सम्यग्दर्शन परिणामेष्वप्यसंख्येयलोकपरिणामेषु केचिद्विशिष्टाः सम्यक्त्वपरिणामाः सहकारिकारणव्यपेक्षास्तद्धतव इति स्थितम् ।
मनापर्ययज्ञानस्वामिप्रतिपादनार्थमाह -
मणपज्जवणाणी पमत्तसंजद-प्पहुडि जाव खीणकसाय-वीदरागछदुमत्था त्ति ॥ १२१ ॥
पर्यायपर्यायिणोरभेदापेक्षया मनःपर्ययज्ञानस्यैव मनःपर्ययज्ञानिव्यपदेशः । देशविरताद्यधस्तनगुणभूमिस्थितानां किमिति • मनःपर्ययज्ञानं न भवेदिति चेन्न, संयमासंयमासंयमत उत्पत्तिविरोधात् । संयममात्रकारणत्वे सर्वसंयतानां किन्न तद्भवेदिति सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात इन पांच प्रकारके विशेष संयमोंके साथ और देशविरतिके साथ भी अवधिज्ञानकी उत्पत्तिका व्यभिचार देखा जाता है, इसलिये अवधिज्ञानकी उत्पत्ति संयमविशेषके निमित्तसे होती है यह भी तो नहीं कह सकते हैं, क्योंकि, सम्यग्दर्शन और संयम इन दोनोंको अवधिज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्त मानने पर आक्षेप और परिहार समान हैं।
शंका- असंख्यात लोकप्रमाण संयमरूप परिणामोंमें कितने ही विशेष जातिके परिणाम अवधिज्ञानकी उत्पत्तिके कारण होते हैं, इसलिये पूर्वोक्त दोष नहीं आता है?
समाधान-यदि ऐसा है तो असंख्यात लोकप्रमाण सम्यग्दर्शनरूप परिणामों में दूसरे सहकारी कारणों की अपेक्षासे युक्त होते हुए कितने ही विशेष जातिके सम्यक्त्वरूप परिणाम अवधिज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण हो जाते हैं यह बात निश्चित हो जाती है।
अब मनःपर्ययज्ञानके स्वामीके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
मनःपर्ययज्ञानी जीव प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग-छमस्थ गुणस्थानतक होते हैं ॥ १२१ ॥
पर्याय और पर्यायी में अभेदकी अपेक्षासे मनःपर्ययज्ञानका ही मनःपर्ययज्ञानीरूपसे उल्लेख किया है।
शंका-देशविरति आदि नीचेके गुणस्थानवी जीवोंके मनापर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, संयमासंयम और असंयमके साथ मनापर्ययज्ञानकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है।
१ मनःपर्ययज्ञाने प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकषायान्ताः सन्ति । स.सि. १.८. २.अ. क. प्रत्योः । संयमसंयत ' आ. प्रतौ च संयमसंयतस्य जघन्यस्य ' इति पाठः। .
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