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१, १, १२२. ]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे णाणमग्गणापरूवणं
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चेदभविष्यद्यदि संयम एक एव तदुत्पत्तेः कारणतामगमिष्यत् । अप्यन्येऽपि तु तद्धेतवः सन्ति तद्वैकल्यान सर्वसंयतानां तदुत्पद्यते । केऽन्ये तद्वेतव इति चेद्विशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालादयः ।
केवलज्ञानाधिपतिगुणभूमिप्रतिपादनार्थमाह
केवलणाणी तिसु ाणे सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदिं ॥ १२२ ॥
अथ स्यान्नार्हतः केवलज्ञानमस्ति तत्र नोइन्द्रियावरण क्षयोपशमजनितमनसः सच्चात् न, प्रक्षीणसमस्तावरणे भगवत्यर्हति ज्ञानावरणक्षयोपशमाभावा तत्कार्यस्य मनसोऽसैवात् । न वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितशक्त्यस्तित्वद्वारेण तत्सचं प्रक्षीण
शंका - यदि संयममात्र मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है तो समस्त संयमियोंके मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं होता है ?
समाधान - यदि केवल संयम ही मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्तिका कारण होता तो ऐसा भी होता । किंतु अन्य भी मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्तिके कारण हैं, इसलिये उन दूसरे हेतुओं के न रहने से समस्त संयतों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता है ।
शंका- वे दूसरे कौनसे कारण हैं ?
समाधान - विशेष जातिके द्रव्य, क्षेत्र और कालादि अन्य कारण हैं। जिनके बिना सभी संयमियों के मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता है ।
अब केवलज्ञानके स्वामीके गुणस्थान बतलाने के लिये सूत्र कहते हैं
केवलज्ञानी जीव सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानों में होते हैं ॥ १२२ ॥
शंका -- अरिहंत परमेष्ठीके केवलज्ञान नहीं है, क्योंकि, वहां पर नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशम से उत्पन्न हुए मनका सद्भाव पाया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, जिनके संपूर्ण आवरणकर्म नाशको प्राप्त हो गये हैं ऐसे अरिहंत परमेष्ठी में ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, इसलिये क्षयोपशमके कार्यरूप मन भी उनके नहीं पाया जाता है । उसीप्रकार वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुई शक्तिकी अपेक्षा भी वहां पर मनका सद्भाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, जिनके वीर्यान्तराय कर्मका क्षय पाया जाता है ऐसे जीवोंके वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुई शक्तिके सद्भाव माननेमें विरोध आता है ।
१ केवलज्ञाने सयोगोऽयोगश्च । स. सि. १.८.
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