Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ७६.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं
[ ३१५ ताश्चतस्रोऽपि पर्याप्तय एकेन्द्रियाणामेव नान्येषाम् । एकेन्द्रियाणां नोच्छ्वासमुपलभ्यते चेन्न, आत्तिदुपलम्भात् । प्रत्यक्षेणागमो बाध्यत इति चेद्भवत्वस्य बाधा प्रत्यक्षात्प्रत्यक्षीकृताशेषप्रमेयात् । न चेन्द्रियजं प्रत्यक्षं स मस्तवस्तुविषयं येन तदविषयीकृतस्य वस्तुनो भावो भेदीयते ।
एवं पर्याप्त्यपर्याप्तीरभिधाय साम्प्रतममुष्मिन्नयं योगो भवत्यमुष्मिश्च न भवतीति प्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह - ___ ओरालियकायजोगो पज्जत्ताणं ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ॥ ७६ ॥
पभिः पञ्चभिश्चतसृभिर्वा पर्याप्तिभिर्निष्पन्नाः परिनिष्ठितास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च पर्याप्ताः । किमेकया पर्याप्त्या निष्पन्नः पर्याप्तः उत साकल्येन निष्पन्न इति ? शरीर
वे चारों पर्याप्तियां एकेन्द्रिय जीवोंके ही होती हैं, दूसरोके नहीं । शंका-एकेन्द्रिय जीवोंके उच्छास तो नहीं पाया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, एकेन्द्रियोंके श्वासोच्छ्वास होता है, यह बात आगम प्रमाणसे जानी जाती है।
शंका-प्रत्यक्षसे यह आगम बाधित है ?
समाधान-जिसने संपूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष कर लिया है ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाणसे यदि बाधा संभव हो तो वह प्रत्यक्षबाधा कही जा सकती है। परंतु इन्द्रियप्रत्यक्ष तो संपूर्ण पदार्थोंको विषय ही नहीं करता है, जिससे कि इन्द्रियप्रत्यक्षकी विषयताको नहीं प्राप्त होनेवाले पदार्थों में भेद किया जा सके।
इसप्रकार पर्याप्ति और अपर्याप्तियोंका कथन करके अब इस जीवमें यह योग होता है और इस जीवमें यह योग नहीं होता है, इसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
औदारिककाययोग पर्याप्तकोंके और औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता
शंका-छह पर्याप्त, पांच पर्याप्ति अथवा चार पर्याप्तियोंसे पूर्णताको प्राप्त हुए तिर्यंच और मनुष्य पर्याप्तक कहलाते हैं। तो क्या उनमेंसे किसी एक पर्याप्तिसे पूर्णताको प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है या संपूर्ण पर्याप्तियोंसे पूर्णताको प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है ?
१ ओरालं पञ्जत्ते थावरकायादि जाव जोगो ति । तम्मिस्समपज्जते चदुगुणठाणेसु णियमेण ॥ गो. जी. ६८०.
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