Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १, ११०.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे वेदमग्गणापरूवणं
[३४७ संयतानां कथं त्रिवेदसत्त्वमिति चेन्न, अव्यक्तवेदसत्त्वापेक्षया तत्र तथोक्तम् । सुगममन्यत् ।
वेदत्रयातीतजीवप्रतिपादनार्थमाहतेण परमवगदवेदा चेदि ।। १०९ ॥
सर्वत्र च-शब्दः समुच्चये दृष्टव्यः एते च पूर्वोक्ताश्च सन्तीति । इति शब्दः सर्वत्र समाप्तौ परिगृहीतव्यः । सुगममन्यत् ।
देवादेशप्रतिपादनार्थमाहदेवा चदुसु हाणेसु दुवेदा, इथिवेदा पुरिसवेदा ॥ ११० ॥
सानत्कुमारमोहन्द्रादुपरि पुरुषवेदा एव । यत्नमन्तरेण तत्कथं लभ्यत इति चेत 'तण परमवगदवेदा चेदि ' अत्रतन च-शब्दो यतोऽनुक्तसमुच्चयार्थश्च तस्मात्सानत्कुमारादीनां पुंवेदत्वमवसीयते । तिर्यङ्मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ताः सम्मूछिमपञ्चेन्द्रियाश्च नपुंसका एव । असंख्येयवर्षायुषस्तियश्चो मनुष्याश्च द्विवेदा एव, न नपुंसकवेदाः इत्यादयोऽ
शंका-संयतोंके तीनों वेदोंका सत्व कैसे संभव है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, अव्यक्तरूपसे वेदोंके अस्तित्वकी अपेक्षा वहां पर तीनों वेदोंकी सत्ता कही । शेष कथन सुगम है।
अब तीनों वेदोंसे रहित जीवोंके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंनववें गुणस्थानके सवेद भागसे आगेके सभी गुणस्थानवाले जीव वेदरहित हैं ॥१०९॥
सब जगह च शब्द समुच्चयरूप अर्थमें जानना चाहिये । अर्थात् वेदरहित और पहले कहे हुए वेदवाले जीव होते हैं। इति शब्द सब जगह समाप्तिरूप अर्थमें ग्रहण करना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
अब देवगतिमें विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंदेव चार गुणस्थानों में स्त्री और पुरुष इसप्रकार दो वेदवाले होते हैं ॥ ११० ॥ सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पसे लेकर ऊपर सभी देव पुरुषवेदी ही होते हैं। शंका-यत्नके विना अर्थात् विना आगम प्रमाणके यह बात कैसे जानी जाय ?
समाधान-'तेण परमवगवेदा चेदि' इस सूत्रमें आया हुआ च शब्द अनुक्त अर्थके समुच्चयके लिये है। इसलिये इससे यह जाना जाता है कि सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पसे लेकर ऊपरके देव एक पुरुषवेदी ही होते हैं।
उसीप्रकार, लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंच और मनुष्य तथा संमूर्छन पंचेन्द्रिय जीव नपुंसक ही होते हैं। असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तिर्यच ये दोनों स्त्री और पुरुष ये दो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org