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१, १, ११६.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे णाणमग्गणापरूवणं
मदि-अण्णाणी सुद-अण्णाणी एइंदिय-प्पहुडि जाव सासणसम्माइट्टि ति ॥ ११६ ॥ .
मिथ्यादृष्टेः द्वेऽप्यज्ञाने भवतां नाम तत्र मिथ्यात्वोदयस्य सत्त्वात् । मिथ्यात्वोदयस्यासवान सासादने तयोः सत्त्वमिति न, मिथ्यात्वं नाम विपरीताभिनिवेश: स च मिथ्यात्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते । समास्ति च सासादनस्यानन्तानुवन्ध्युदय इति । कथमेकेन्द्रियाणां श्रुतज्ञानमिति चेत्कथं च न भवति ? श्रोत्राभावान शब्दावगतिस्तदभावान्न शब्दार्थावगम इति नैष दोषः, यतो नायमेकान्तोऽस्ति शब्दार्थावबोध एव श्रुतमिति । अपि तु अशब्दरूपादपि लिङ्गाल्लिङ्गिज्ञानमपि श्रुतमिति । अमनसां तदपि कथमिति चेन्न, मनोऽन्तरेण वनस्पतिषु हिलाहितप्रवृत्तिनिवृत्युपलम्भतोज्नेकान्तात् ।
___एकेन्द्रियसे लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतक मत्यशानी और श्रुताशानी जीव होते हैं ॥ ११६ ॥
शंका-मिथ्यादृष्टि जीवोंके भले ही दोनों अज्ञान होवें, क्योंकि, वहां पर मिथ्यात्व कर्मका उदय पाया जाता है। परंतु सासादनमें मिथ्यात्वका उदय नहीं पाया जाता है, इसलिये वहां पर वे दोनों ज्ञान अज्ञानरूप नहीं होना चाहिये ?
समाधान--नहीं, क्योंकि, विपरीत अभिनिवेशको मिथ्यात्व कहते हैं। और वह मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनोंके निमित्तसे उत्पन्न होता है। सासादन गुणस्थान. बालेके अनन्तानुबन्धीका उदय तो पाया ही जाता है, इसलिये वहां पर भी दोनों अज्ञान संभव हैं।
शंका- एकेन्द्रियोंके श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है ? प्रतिशंका--कैसे नहीं हो सकता है?
शंका-एकेन्द्रियोंके श्रोत्र इन्द्रियका अभाव होनेसे शब्दका ज्ञान नहीं हो सकता है, और शब्दका शान नहीं होनेसे शब्दके विषयभूत वाच्यका भी ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिये उनके श्रुतज्ञान नहीं होता है यह बात सिद्ध हो जाती है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह कोई एकान्त नहीं है कि शब्दके निमित्तसे होनेवाले पदार्थके ज्ञानको ही श्रुतज्ञान कहते हैं । किन्तु शब्दसे भिन्न रूपादिक लिंगसे भी जो लिंगीका ज्ञान होता है उसे भी श्रुतज्ञान कहते हैं।
शंका--मनरहित जीवोंके ऐसा श्रुतज्ञान भी कैसे संभव है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, मनके विना वनस्पतिकायिक जीवोंके हितमें प्रवृत्ति और आहितसे निवृत्ति देखी जाती है, इसलिये मनसहित जीवोंके ही श्रुतज्ञान मानने में उनसे अनेकान्त दोष आता है।
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