Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 478
________________ १, १, ११५.] [३५९ संत-परूवणाणुयोगद्दारे णाणमग्गणापरूवणं विवरीयमोहिणाणं खइयुवसमियं च कम्म-बीजं च । वेभंगो त्ति पउच्चइ समत्त-गाणीहि समयम्हि ॥ १८१ ॥ अभिमुह-णियमिय-बोहणमाभिणिबोहियमाणिदि-इंदियनं । बहु-ओग्गहाइणा खलु कय-छत्तीस-ति-सय--भेयं ॥ १८२ ॥ अस्थादो अत्यंतर-उवलंभो तं भणंति सुदणाणं । आभिणिबोहिय-पुव्वं णियमेणिह सद्दजं पमुहं ॥ १८३ ॥ अवहीयदि त्ति ओही सीमाणाणे ति वण्णिदं समए । भव-गुण-पच्चय-विहियं तमोहिणाणे त्ति णं ३ति ॥ १८४ ।। सर्वज्ञोंके द्वारा आगममें क्षयोपशमजन्य और मिथ्यात्वादि कर्मके कारणरूप विपरीत अवधिज्ञानको विभंग ज्ञान कहा है ॥ १८१॥ मन और इन्द्रियोंकी सहायतासे उत्पन्न हुए अभिमुख और नियमित पदार्थके ज्ञानको आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं। उसके बहु आदिक बारह प्रकारके पदार्थ और अवग्रह आदिकी अपेक्षा तीनसौ छत्तीस भेद हो जाते हैं ॥१८२॥ . मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थके अवलम्बनसे तत्संबन्धी दूसरे पदार्थ के ज्ञानको श्रुतक्षान कहते हैं। यह ज्ञान नियमसे मतिज्ञानपूर्वक होता है। इसके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य इसप्रकार दो भेद हैं। उनमें शब्दजन्य श्रुतज्ञान मुख्य है ॥ १८३ ॥ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा जिस ज्ञानके विषयकी सीमा हो उसे अवधिशान कहते हैं। इसीलिये परमागममें इसको सीमाज्ञान कहा है । इसके भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय इसप्रकार जिनेन्द्रदेवने दो भेद कहे हैं ॥ १८४ ॥ १ गो. जी. ३०५. विशिष्टस्य अवधिज्ञानस्य भंगःविपर्ययः विभंग इति निरुक्तिसिद्धार्थस्यैव अनेन प्ररूपितस्वात् । जी. प्र. टी. विरुद्धो वितथो वा अन्यथा वस्तुभंगो वस्तुविकल्पो यस्मिस्तद्विभङ्गं, तच्च तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति विभङ्गज्ञानं मिथ्यात्वसहितोऽवधिरित्यर्थः । सू. ५४२ ( आमि. रा. को. विभंगणाण.) २ गो. जी. ३०६. स्थूलवर्तमानयोग्यदेशावस्थितोऽर्थः अभिमुखः, अस्येन्द्रियस्य अयमेवार्थः इत्यवधारितो नियमितः। आभिमुखश्चासौ नियमितश्वासौ अभिमुखनियमितः । तस्यार्थस्य बोधन अभिनिबोधिकं मतिज्ञानमित्यर्थः । जी.प्र. टी. ३ गो. जी. ३१५. जीवोऽस्तीत्युक्ते जीवोऽस्तीति शब्दज्ञाने श्रोत्रन्द्रियप्रभव मतिज्ञानं भवति । ज्ञानेन जीवोऽस्तीति शब्दवाच्यरूपे आत्मास्तित्वे वाच्यवाचकसंबंधसंकेतसंकलनपूर्वकं यद् ज्ञानमुत्पद्यते तदक्षरात्मकं श्रुतज्ञानं भवति, अक्षरात्मक शब्दसमुत्पन्नत्वेन कार्य कारणोपचारात् । वातशीतस्पर्शज्ञानेन वातप्रकृतिकस्य तत्स्पर्श अमनोज्ञज्ञानमनक्षरात्मकं लिंगजं श्रुतज्ञानं भवति, शब्दपूर्वकत्वाभावात् जी. प्र.टी. ४. गो. जी. ३७०. अवाग्धानादविच्छिन्नविषयाद्वा अवधिः । स. सि. १. ९. अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमाधुभयहेतुसन्निधाने सत्यवधीयतेवाग्दधात्यवाग्धानमात्रं वावधिः । अवधिशब्दोऽधः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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