Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 475
________________ ३५६ ] छक्खडागमे जीवट्ठाणं [ १, १, ११५. एव प्रारोहमुक्त्यन्यथानुपपत्तितः स्पर्शनस्याप्राप्तार्थग्रहणसिद्धेः। शेषेन्द्रियाणामप्राप्तार्थग्रहणं नोपलभ्यत इति चेन्माभूदुपलम्भस्तथापि तदस्त्येव । यद्युपलम्भस्त्रिकालगोचरमशेष पर्यच्छेत्स्यदनुपलब्धस्याभावोऽभविष्यत् । न चैवमनुपलम्भात् । न कात्स्न्येनाप्राप्तमर्थस्यानिःसृतत्वमनुक्तत्वं वा महे यतस्तदवग्रहादिनिदानमिन्द्रियाणामप्राप्यकारित्व ही अंकुरोंका फैलाव अन्यथा बन नहीं सकता है, इसलिये स्पर्शन इन्द्रियके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना, अर्थात् अर्थावग्रह, बन जाता है। शंका-इसप्रकार यदि स्पर्शन इन्द्रियके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना बन जाता है तो बन जाओ । फिर भी शेष इन्द्रियोंके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना नहीं पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, यदि शेष इन्द्रियोंसे अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना क्षायो. पशमिक शानके द्वारा नहीं पाया जाता है तो मत पाया जावे । तो भी वह है ही, क्योंकि, यदि हमारा ज्ञान त्रिकालगोचर समस्त पदार्थोंको जाननेवाला होता तो अनुपलब्धका अभाव सिद्ध हो जाता, अर्थात् हमारा ज्ञान यदि सभी पदार्थोंको जानता तो कोई भी पदार्थ उसके लिये अनुपलब्ध नहीं रहता। किंतु हमारा ज्ञान तो त्रिकालवी पदार्थोंको जाननेवाला है नहीं, क्योंकि सर्व पदार्थोंको जाननेवाले ज्ञानकी हमारे उपलब्धि ही नहीं होती है। इस कथनसे यह सिद्ध हुआ कि शेष इन्द्रियां अप्राप्त पदार्थको ग्रहण करती हैं इस बातको यदि हम न भी जान सकें, तो भी उसका निषेध नहीं किया जा सकता है। दूसरे, पदार्थके पूरी तरहसे अनिःसृतपनेको और अनुक्तपनेको हम अप्राप्त नहीं कहते हैं। जिससे उनके अवग्रहादिका कारण इन्द्रियोंका अप्राप्यकारीपना होवे । ........................ न्द्रियाभ्यामिति तत्र व्यंजनावग्रहस्य प्रतिषेधात् । न शनैर्ग्रहणं व्यंजनावग्रहः चक्षुर्मनसोरपि तदस्तित्वतः तयोयंजनावग्रहस्य सत्त्वप्रसंगात । न च तत्र शनैर्ग्रहणमसिद्धमक्षिप्रमंगाभावे अष्टचत्वारिंच्चक्षुर्मतिज्ञानभेदस्यासत्त्वप्रसंगात ।न थोत्रादीन्द्रिय. चतष्टयेऽर्थावग्रहः तत्र प्राप्तस्यैवार्थस्य ग्रहणोपलंभात् इति चेन्न, वनस्पतिष्वप्राप्तग्रहणस्योपलंभात् । तदपि कुतोऽवगम्यते ? दूरस्थनिधिमुद्दिश्य प्रारोहमुक्त्यन्यथानुपपत्तेः । चत्तारि धणुसयाई चउसट्ठसयं च तह य धणुहाणं । पासे रसे य गंधे दुगुणा दुगुणा असण्णि त्ति ॥xx इति आगमाद्वा तेषामप्राप्तार्थग्रहणमवगम्यते । नवयोजनान्तरस्थितपुद्गलद्रव्यस्कंधैकदेशमागम्येन्द्रियसंबन्धं जानंतीति केचिदाचक्षते तन्न घटते, अध्वानप्ररूपणायाः वैफल्यप्रसंगात् । न चाध्वानं द्रव्याल्पीयस्त्वस्य कारणं स्वमहत्त्वापरित्यागेन भूयो योजनानि संचरज्जीमूतवातोपलम्भतोऽने कांतात् । किंच यदि प्राप्तार्थग्राहिण्येवेन्द्रियाण्यध्वाननिरूपणमंतरेण द्रव्यप्रमाणप्ररूपणमेवाकरिष्यन्न चैव तथानुपलंभात् ॥ किं च नवयोजनांतरस्थिताग्निविषाभ्यां तीव्रस्पर्शरसक्षयोपशमानां दाहमरणे स्याता प्राप्तार्थग्रहणात् तावन्मात्राध्वानस्थिताशुचिभक्षणतधजनितदुःखे च तत एव स्यातां । पुढे सुणेइ सदं अपुढे चेय पस्सदे रूवं । गंधं रसं च फासं बढे पुढे च जाणादि । इत्यस्मात् सूत्रात्प्राप्तार्थग्राहित्वमिन्द्रियाणामवगम्यत इति चेन्न, अर्थावग्रहस्य लक्षणाभावतः खरविषाणस्येवाभावप्रसंगात् । कथं पुनरस्याः गाथाया अर्थों व्याख्यायते ? उच्यते, रूपमस्पष्टमेव चक्षुर्गृह्णाति च-शब्दान्मनश्च । गंधं रसं स्पर्श च बद्धं स्वकं स्वकेन्द्रियेषु नियमितं पुटुं स्पष्टं च-शब्दादस्पष्टं च शेषन्द्रियाणि गृहति । पढें सुणेइ सद्दे इत्यत्रापि बद्धं च शन्दी योज्यौ अन्यथा दुर्व्याख्यानतापत्तेः । धवला ६९८-६९९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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