Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १,१, १०१.
पञ्चानामेव नामान्यभ्यधादन्तदीपकार्थम् । ततः शेषस्वर्गनामान्यपि वक्तव्यानि । तानि च यथवासरं वक्ष्यामः । एवं योगनिरूपणावसर एव चतसृषु गतिषु पर्याप्तापर्याप्तकालविशिष्टासु सकलगुणस्थानानामभिहितमस्तित्वम् । शेषमार्गणासु अयमर्थः किमिति नाभिधीयत इति चेत्, नोच्यते अनेनैव गतार्थत्वाद् गतिचतुष्टयव्यतिरिक्तमार्गणाभावात् ।
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वेदविशिष्टगुणस्थाननिरूपणार्थमाह
वेदानुवादेण अस्थि इत्थवेदा पुरिसवेदा णवुंसयवेदा अवगदवेदादि ॥ १०१ ॥
दोषैरात्मानं परं च स्तृणाति छादयतीति स्त्री, स्त्री चासौ वेदश्व स्त्रीवेदः । अथवा पुरुषं स्तृणाति आकाङ्क्षतीति स्त्री पुरुषकाङ्गेत्यर्थः । स्त्रियं विन्दतीति स्त्रीवेदः । अथवा
ये पांच विमान सबसे अन्तमें हैं इस बातके प्रगट करनेके लिये पांचों ही विमानों के नाम कहे गये हैं, इसलिये शेष स्वर्गौके नाम भी कहने चाहिये । परंतु उनका वर्णन यथावसर करेंगे।
इसप्रकार योगमार्गणा के निरूपण करनेके अवसर पर ही पर्याप्त और अपर्याप्त काल युक्त चारों गतियों में संपूर्ण गुणस्थानों की सत्ता बतला दी गई ।
शंका- शेष मार्गणाओंमें यह विषय क्यों नहीं कहा जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इसी कथनसे शेष मार्गणाओंमें यह विषय आगया है, क्योंकि, चारों गतियोंको छोड़कर और कोई मार्गणाएं नहीं हैं ।
अब वेदसहित गुणस्थानोंके निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंवेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अपगतवेदवा ले जीव होते हैं ॥ १०१ ॥
जो दोषोंसे स्वयं अपनेको और दूसरेको आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं और स्त्रीरूप जो वेद है उसे स्त्रीवेद कहते हैं । अथवा, जो पुरुषकी आकांक्षा करती है उसे स्त्री कहते हैं, जिसका अर्थ पुरुषकी चाह करनेवाली होता है। जो अपनेको स्त्रीरूप अनुभव करता है उसे स्त्रीवेद कहते हैं । अथवा वेदन करनेको वेद कहते हैं और स्त्रीरूप वेदको स्त्रीवेद
उपपातो जन्मानुत्तरोपपातः । भ. ६. श. ६. उ. अस्थि णं भंते अणुत्तरोववाइया देवा | हंता । अस्थि । सेकेण णं भंते ? एवं बुच्चइ अणुत्तरोववाइया देवा ? गोयमा । अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सदा, अणुत्तरा ख्वा, जाव अणुत्तरा फासा, से तेणट्टे णं गोयमा । एवं बुच्चइ जाव अणुत्तरोववाइया देवा । भ. १४. व. ७. उ. ( अभि. रा. को. अत्तरोववाइय . )
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