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३४२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १०२. णेवित्थी व पुमं णवंसओ उभय-लिंग-वदिरित्तो ।
इट्ठावाग-समाणग-वेयण-गरुओ कलुस-चित्तो' ॥ १७२ ॥ अपगतात्रयोऽपि वेदसंतापा येषां तेऽपगतवेदाः । प्रक्षीणान्तर्दाहा इति यावत् । सर्वत्र सन्तीत्यभिसम्बन्धः कर्तव्यः । उक्तं च -
कारिस-तणिहिवागग्गि-सरिस-परिणाम-वेयणुम्मुक्का ।
अवगय-वेदा जीवा सग-संभवणंत-वर-सोक्खा ॥ १७३ ॥ वेदवतां जीवानां गुणस्थानादिषु सत्चप्रतिपादनार्थमु तरसूत्रमाह -
इथिवेदा पुरिसवेदा असण्णिमिच्छाइट्टि-प्पहुडि जाव अणियदि त्ति ॥ १०२ ॥
उभयोर्वेदयोरक्रमेणैकस्मिन् प्राणिनि सत्वं प्रामोतीति चेन्न, विरुद्धयोरक्रमेणै
जो न स्त्री है और न पुरुष है, किंतु स्त्री और पुरुषसंबन्धी दोनों प्रकारके लिंगे.से रहित है, अवाकी अग्निके समान तीव्र वेदनासे युक्त है और सर्वदा स्त्री और पुरुष विषयक मैथुनकी अभिलाषासे उत्पन्न हुई वेदनासे जिसका चित्त कलुषित है उसे नपुंसक कहते हैं ॥१७२॥
जिनके तीनों प्रकारके वेदोंसे उत्पन्न होनेवाला संताप ( अन्तरंग दाह) दूर हो गया है वे वेदरहित जीव हैं।
सूत्रमें कहे गये सभी पदोंके साथ 'सन्ति' पदका संबन्ध कर लेना चाहिये । कहा भी है
___ जो कारीष ( कण्डेकी ) आग्नि, तृणाग्नि, और इष्टपाकाग्नि (अवेकी अग्नि ) के समान परिणामोंसे उत्पन्न हुई वेदनासे रहित हैं और अपनी आत्मामें उत्पन्न हुए अनन्त और उत्कृष्ट ... सुखके भोक्ता हैं उन्हें वेदरहित जीव कहते हैं ॥ १७३ ॥
__ अब वेदोंसे युक्त जीवोंके गुणस्थान आदिकमें अस्तित्वके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले जीव असंज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं ॥ १०२॥
शंका- इसप्रकार तो दोनों वेदोंका एकसाथ एक जीवमें अस्तित्व प्राप्त हो जायगा?
१ गो. जी. २७५. तथापि स्त्रीपुरुषाभिलाषरूपतीवकामबेदनालक्षणो भावनंपुसकवेदोऽस्तीति आचार्यस्य तात्पर्य ज्ञातव्य | जी.प्र.टी.
२ गो. जी. २७६. यद्यपि अपगतवेदानिवृत्तिकरणादीनां वेदोदयजनितकामवेदनारूपसंक्लेशाभावः तथापि गुणस्थानातीतमुक्तात्मनां स्वात्मोत्थसुखसद्भावः ज्ञानादिगुणसद्भाववद्दर्शितः। परमार्थवृत्त्या तु अपगतवेदानामेषामपि ज्ञानोपयोगस्वास्थ्यलक्षणपरमानंदो जीवस्वभावोऽस्तीति निश्चेतव्यः । जी. प्र. टी.
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