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१, १, ९१.] संत-परूवणाणुयोगदोरे जोगमग्गणापरूवणं
[३३१ पर्याप्त इत्युपचर्यते । निश्चयनयाश्रयणे तु पुनरपर्याप्तः । एवं समुद्धातगतकेवलिनामपि वक्तव्यम् ।
मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाह - एवं मणुस्स-पज्जत्ता ॥ ९१ ॥
पर्याप्तेषु नापर्याप्तत्वमस्ति विरोधात् । ततः ‘एवं पजत्ता' इति कथमेतद्धटत इति नैष दोषः, शरीरानिष्पत्त्यपेक्षया तदुपपत्तेः । कथं तस्य पर्याप्तत्वं ? न, द्रव्यार्थिकनयाश्रयणात् । ओदनः पच्यत इत्यत्र यथा तन्दुलानामेवौदनव्यपदेशस्तथाऽपर्याप्तावस्थायामप्यत्र पर्याप्तव्यवहारो न विरुद्धयत इति । पर्याप्तनामकर्मोदयापेक्षया वा पर्याप्तता । एवं तिर्यक्ष्वपि वक्तव्यम् । सुगममन्यत् ।
अवस्थामें भी पर्याप्त है, इसप्रकारका उपचार किया जाता है । निश्चयनयका आश्रय करने पर तो वह अपर्याप्त ही है । इसीप्रकार समुद्धातगत केवलीके संबन्धमें भी कथन करना चाहिये।
अब मनुष्यके भेदोंके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंमनुष्य-सामान्यके कथनके समान पर्याप्त मनुष्य होते हैं ॥ ९१ ॥
शंका-पर्याप्तकोंमें अपर्याप्तपना तो बन नहीं सकता है, क्योंकि, इन दोनों अवस्थाओंका परस्पर विरोध है। इसलिये 'इसीप्रकार पर्याप्त होते हैं। यह कथन कैसे घटित होगा?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, शरीरकी अनिष्पत्तिकी अपेक्षा पर्याप्त. कोंमें भी अपर्याप्तपना बन जाता है।
शंका - जिसके शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई है उसे पर्याप्तक कैसे कहा जायगा ? :
समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा उसके भी पर्याप्तपना बन जाता है। भात पक रहा है, यहां पर जिसप्रकार चावलोंको भात कहा जाता है, उसीप्रकार जिसके सभी पर्याप्तियां पूर्ण होनेवाली हैं ऐसे जीवके अपर्याप्त अवस्थामें भी पर्याप्तपनेका व्यवहार विरोधको प्राप्त नहीं होता है। अथवा, पर्याप्त नामकर्मके उदयकी अपेक्षा उनके पर्याप्त पना समझ लेना चाहिये। इसीप्रकार तिर्यंचोंमें भी कथन करना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
विशेषार्थ-पर्याप्त मनुष्यों में पर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्त इन दोनों प्रकारके मनुष्योंका
१ औदारिकाद्याः शुद्धास्तत्पर्याप्तकस्य, मिश्रास्वपर्याप्तकस्यति । तत्रोत्पत्तावौदारिककायः कार्मणेन, औदारिकशरीरिणश्च वैक्रियकाहारककरणकाले वैक्रियकाहारकाभ्यां मिश्री भवतीति । एवमौदारिकमिश्रः । तथा वैक्रियकमिश्रो देवाद्युत्पत्तौ कार्मणेन, कृतवैक्रियस्य वौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकेण । आहारकमिश्रस्तु साधिताहारककायप्रयोजन: पुनरौदारिकप्रवेशे औदारिकेणेति । स्था. ३ का. १३. ( अभि. रा. को. जोग.)
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