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३३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १, ९०. सम्यग्दृष्टीनामपि अपर्याप्तत्वस्याभावापत्तेः । न च संयमोत्पत्त्यवस्थापेक्षया तदवस्थायां प्रमत्तस्य पर्याप्तत्वं घटते असंयतसम्यग्दृष्टावपि तत्प्रसङ्गादिति नैष दोषः, अवलम्बितद्रव्यार्थिकनयत्वात् । सोऽन्यत्र किमिति नावलम्ब्यत इति चेन्न, तत्र निमित्ताभावात् । किमर्थमत्रावलम्ब्यत इति चेत्पर्याप्तरस्य साम्यदर्शनं तदवलम्बनकारणम् । केन साम्यमिति चेद् दुःखाभावेन । उपपातगर्भसम्मूछे जशरीराण्यादधानानामिव आहारशरीरमाददानानां न दुःखमस्तीति पर्याप्तत्वं प्रमत्तस्योपचर्यत इति यावत् । पूर्वाभ्यस्तवस्तुविस्मरणमन्तरेण शरीरोपादानाद्वा दुःखमन्तरेण पूर्वशरीरपरित्यागाद्वा प्रमत्तस्तदवस्थायां
प्रमत्तसंयतोंको पर्याप्तक कहा जावे, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, पर्याप्तकर्मका उदय प्रमत्तसंयतोंके समान असंयत सम्यग्दृष्टियोंके भी निवृत्त्यपर्याप्त अवस्थामें पाया जाता है, इसलिये वहां पर भी अपर्याप्तपनेका अभाव मानना पड़ेगा। संयमकी उत्पत्तिरूप अवस्थाकी अपेक्षा प्रमत्तसंयतके आहारककी अपर्याप्त अवस्थामें पर्याप्तपना बन जाता है यदि ऐसा कहा जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इसप्रकार असंयत सम्यग्दृष्टियोंके भी अपर्याप्त अवस्थामें [सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा] पर्याप्तपनेका प्रसंग आजायगा ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयके अवलम्बनकी अपेक्षा प्रमत्तसंयतोंको आहारक शरीरसंबन्धी छह पर्याप्तियों के पूर्ण नहीं होने पर भी पर्याप्त कहा है।
शंका-उस द्रव्यार्थिक नयका दूसरी जगह [विग्रहगतिसंबन्धी गुणस्थानोंमें ] आलम्बन क्यों नहीं लिया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, वहां पर द्रव्यार्थिक नयके अवलम्बनके निमित्त नहीं पाये जाते हैं।
शंका-तो फिर यहां पर द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन किस लिये लिया जा रहा है।
समाधान- आहारकसंबन्धी अपर्याप्त अवस्थाको प्राप्त हुए प्रमत्तसंयतकी पर्याप्तके साथ समानताका दिखाना ही यहां पर द्रव्यार्थिक नयके अवलम्बनका कारण है।
शंका-इसकी दूसरे पर्याप्तकोंके साथ किस कारणसे समानता है ?
समाधान-दुःखाभावकी अपेक्षा इसकी दूसरे पर्याप्तकोंके साथ समानता है। जिसप्रकार उपपातजन्म, गर्भजन्म या संमूर्छनजन्मसे उत्पन्न हुए शरीरोंको धारण करनेवालोंके दुःख होता है, उसप्रकार आहारशरीरको धारण करनेवालोंके दुःख नहीं होता है, इसलिये उस अवस्थामें प्रमत्तसंयत पर्याप्त है इसप्रकारका उपचार किया जाता है। अथवा, पहले अभ्यास की हुई वस्तुके विस्मरणके विना ही आहारक शरीरका ग्रहण होता है, या दुःखके विना ही पूर्व शरीर [ औदारिक ] का परित्याग होता है, अतएव प्रमत्तसंयत अपर्याप्त
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