Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१,१, ८३.] संत-परूवणाणुयोगदारे जोगमग्गणापरूवणं
[३२३ विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरड्या मिच्छाइट्टि-टाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ॥ ८२ ॥
अधस्तनीषु षट्सु पृथिवीषु मिथ्यादृष्टीनामुत्पत्तेः सत्त्वात् । पृथिवीशब्दः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः । सुगममन्यत् ।
शेषगुणस्थानानां तत्र क्व सत्त्वं क्व च न भवेदिति जातारेकस्य भव्यस्यारेकानिरसनार्थमाह
सासणसम्माइटि-सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइटिटाणे णियमा पज्जत्ता ॥ ८३ ॥
भवतु नाम सम्यग्मिथ्यादृष्टस्तत्रानुत्पत्तिः। सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाममधिष्ठितस्य मरणाभावात् । भवति च तस्य मरणं गुणान्तरमुपादाय । न च तत्र स गुणोऽस्तीति । किन्त्वेतन्न युज्यते शेषगुणस्थानप्राणिनस्तत्र नोत्पद्यन्त इति ? न तावत् सासादनस्तत्रोत्पद्यते
दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक रहनेवाले नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ८२ ॥
प्रथम पृथिवीको छोड़कर शेष छह पृथिवियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंकी ही उत्पत्ति पाई जाती है, इसलिये वहां पर प्रथम गुणस्थानमें पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों अवस्थायें बतलाई गई हैं। सूत्र में आया हुआ पृथिवी शब्द प्रत्येक नरकके साथ जोड़ लेना चाहिये। शेष व्याख्यान सुगम है।
उन पृथिषियोंकी किस अवस्थामें शेष गुणस्थानोंका सद्भाव है और किस अवस्थामें नहीं, इसप्रकार जिसको शंका उत्पन्न हुई है उस भव्यकी शंकाके दूर करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथित्री तक रहनेवाले नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जोर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्तक होते हैं ॥ ८३ ॥
शंका-सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवकी मरकर शेष छह पृथिवियोंमें भी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणामको प्राप्त हुए जीवका मरण ही नहीं होता है । यदि उसका मरण भी होता है तो किसी दूसरे गुणस्थानको प्राप्त होकर ही होता है। परंतु मरणकालमें वह गुणस्थान नहीं होता, यह सब ठीक है। किंतु शेष (दूसरे, चौथे) गुणस्थानवाले प्राणी मरकर वहां पर उत्पन्न नहीं होते, यह कहना नहीं बनता है ?
समाधान-सासादन गुणस्थानवाले तो नरकमें उत्पन्न ही नहीं होते हैं, क्योंकि,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org