Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 438
________________ १, १, ७९.] संत-परूवणाणुयोगदारे जोगमागणापरूवणं [३१९ णियमा पज्जत्ता' इत्यनेनार्षेण सह कथं न विरोधः स्यादिति चेन्न, द्रव्यार्थिकनयापेक्षया प्रवृत्तसूत्रस्याभिप्रायेणाहारशरीरानिष्पत्यवस्थायामपि षट्पर्याप्तीनां सत्त्वाविरोधात्। कार्मणकाययोगः पर्याप्तेष्वपर्याप्तेषूभयत्र वा भवतीति नोक्तम्, तन्निश्चयः कुतो भवेत् ? 'कम्मइयकायजोगो विग्गहगइ-समावण्णाणं केवलीणं वा समुग्धाद-गदाणं ' इत्येतस्मासूत्रादपर्याप्तेष्वेव कार्मणकाययोग इति निधीयते । __ पर्याप्तिष्वपर्याप्तिषु च योगानां सत्त्वमसत्त्वं चाभिधायेदानी गतिषु तत्र गुणस्थानानां सत्चासत्वप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रभाह - णेरड्या मिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइडिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ॥ ७९ ।। नारका इत्यनेन बहुवचनेन स्यादित्येतस्य एकवचनस्य न सामानाधिकरण्य शंका-'संयतासंयतसे लेकर सभी गुणस्थानों में जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं। इस आर्षवचनके साथ उपर्युक्त कथनका विरोध क्यों नहीं आजायगा ? समाधान-नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे प्रवृत्त हुए इस सूत्रके अभिप्रायसे आहारक शरीरकी अपर्याप्त अवस्थामें भी औदारिक शरीरसंबन्धी छह पर्याप्तियोंके होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। शंका-कार्मणकाययोग पर्याप्त होने पर होता है, या अपर्याप्त रहने पर होता है, अथवा दोनों अवस्थाओं में होता है, यह कुछ भी नहीं कहा, इसलिये इसका निश्चय कैसे किया जाय ? समाधान-'विग्रहगतिको प्राप्त चारों गतिके जीवोंके और समुद्धातगत केवलियोंके कार्मणकाययोग होता है' इस सूत्रके कथनानुसार अपर्याप्तकोंके ही कार्मणकाययोग होता है, इस कथनका निश्चय हो जाता है। इसप्रकार पर्याप्ति और अपर्याप्तियों में योगोंके सत्त्व और असत्त्वका कथन करके अब चार गतिसंबन्धी पर्याप्ति और अपर्याप्तियों में गुणस्थानोंके सत्त्व और असत्त्वके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं ___ नारकी जीव मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्तक होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं ॥ ७९ ॥ __ शंका-सूत्रमें आये हुए 'नारकाः' इस बहुवचनके साथ 'स्यात्' इस एक वचनका समानाधिकरण नहीं बन सकता है ? १ अ. क. आ. प्रतिषु · कुतोभवत् ' इति पाठः। २ जी. सं. सू. ६०. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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