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१, १, ७८. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं
[ ३१७
वेव्वियकाय जोगो पज्जत्ताणं वेउव्वियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ॥ ७७ ॥
पर्याप्तावस्थायां वैक्रियककाययोगे सति तत्र शेषयोगाभावः स्यादिति चेन्न, तत्र वैक्रियककाययोग एवास्तीत्यवधारणाभावात् । अवधारणाभावेऽपर्याप्तावस्थायां शेषयोगानामपि सत्त्वमापतेदिति चेत्सत्यम्, कार्मणकाययोगस्य सच्चोपलम्भात् । न तद्वत्तत्र वाङ्मनसयोरपि सच्चमपर्याप्तानां तयोरभाव स्योक्तत्वात् । आहारकाय योग सत्व प्रदेश प्रतिपादनायाह -
आहारकायजोगो पज्जत्ताणं आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ॥ ७८ ॥
आहारशरीरोत्थापकः पर्याप्तः संयतत्वान्यथानुपपत्तेः । तथा चाहारमिश्रकाय
वैक्रियककाययोग पर्याप्तकोंके और वैक्रिय कमिश्रकाय योग अपर्याप्त कोंके होता है ॥७७॥ शंका - पर्याप्त अवस्थामें वैक्रियककाययोगके मानने पर वहां शेष योगों का अभाव मानना पड़ेगा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, पर्याप्त अवस्थामें वैक्रियककाययोग ही होता है ऐसा निश्चयरूपसे कथन नहीं किया है ।
शंका- जब कि उक्त कथन निश्चयरूप नहीं है तो अपर्याप्त अवस्था में भी उसी प्रकार शेष योगों का सद्भाव प्राप्त हो जायगा ?
समाधान - यह कहना किसी अपेक्षासे ठीक है, क्योंकि, अपर्याप्त अवस्था में वैक्रियकमिश्र के अतिरिक्त कार्मणकाययोगका भी सद्भाव पाया जाता है। किंतु कार्मणकाययोगके समान अपर्याप्त अवस्था में वचनयोग और मनोयोगका सद्भाव नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, अपर्याप्त अवस्था में इन दोनों योगोंका अभाव रहता है, यह बात पहले कही जा चुकी है।
अब आहारककाययोगका आधार बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं-
आहारककाययोग पर्याप्तकोंके और आहारकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है ॥७८॥ शंका - आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवाला साधु पर्याप्तक ही होता है, अन्यथा उसके संयतपना नहीं बन सकता है। ऐसी हालतमें आहारकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकके होता
१ वेगुव्वं पज्जत्ते इदरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु । गो जी. ६८१. २ आहारो पज्जते इदरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु । गो. जी. ६८३.
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