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३१६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १, ७६. पर्याप्त्या निष्पन्नः पर्याप्त इति भण्यते । तत्रौदारिककाययोगो निष्पन्नशरीरावष्टम्भबलेनोत्पन्नजीवप्रदेशपरिस्पन्देन योगः औदारिककाययोगः । अपर्याप्तावस्थायामौदारिकमिश्रकाययोगः । कार्मणौदारिकस्कन्धनिबन्धनजीवप्रदेशपरिस्पन्देन योगः औदारिकमिश्रकाययोग इति यावत् । पयाप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य सत्वात्तत्राप्युभयनिबन्धनात्मप्रदेशपरिस्पन्द इति औदारिकमिश्रकाययोगः किमु न स्यादिति चेन्न, तत्र तस्य सतोऽपि जीवप्रदेशपरिस्पन्दस्याहेतुत्वात् । न पारम्पर्यकृतं तद्धेतुत्वं तस्यौपचारिकत्वात् । न तदप्यविवक्षितत्वात् । अथ स्यात्परिस्पन्दस्य बन्धहेतुत्वे संचरदभ्राणामपि कर्मबन्धः प्रसजतीति न, कमजनितस्य चैतन्यपरिस्पन्दस्यास्रवहेतुत्वेन विवक्षित त्वात् । न चाभ्रपरिस्पन्दः कर्मजनितो येन तद्वैतुतामास्कन्देत् ।
वैक्रियककाययोगस्य सत्त्वोद्देशप्रतिपादनार्थमाह -
समाधान-सभी जीव शरीरपर्याप्तिके निष्पन्न होने पर पर्याप्तक कहे जाते हैं।
उनमेंसे पहले औदारिककाययोगका लक्षण कहते हैं । पर्याप्तिको प्राप्त हुए शरीरके आलम्बनद्वारा उत्पन्न हुए जीवप्रदेश-परिस्पन्दसे जो योग होता है उसे औदारिककाययोग कहते हैं। और औदारिकशरीरकी अपर्याप्त अवस्थामें औदारिकमिश्रकाययोग होता है। जिसका तात्पर्य इसप्रकार है कि कार्मण और औदारकशरिके स्कन्धोंके निमित्तसे जीवके प्रदेशोंमें उत्पन्न हुए परिस्पन्दसे जो योग होता है उसे औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं।
शंका-पर्याप्त अवस्थामें कार्मणशरीरका सद्भाव होने के कारण वहां पर भी कार्मण और औदारिकशरीरके स्कन्धोंके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है, इसलिये वहां पर भी औदारिकमिश्रकाययोग क्यों नहीं कहा जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, पर्याप्त अवस्थामें यद्यपि कार्मणशरीर विद्यमान है फिर भी वह जीव प्रदेशोंके परिस्पन्दका कारण नहीं है। यदि पर्याप्त-अवस्थामें कार्मणशरीर परंपरासे जीवप्रदेशोंके परिस्पन्दका कारण कहा जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कार्मणशरीरको परंपरासे निमित्त मानना उपचार है । यदि कहें कि उपचारका भी यहां पर ग्रहण कर लिया जावे, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उपचारसे परंपरारूप निमित्तके ग्रहण करने की यहां विवक्षा नहीं है।
शंका-परिस्पन्दको बन्धका कारण मानने पर संचार करते हुए मेघोंके भी कर्मबन्ध प्राप्त हो जायगा, क्योंकि, उनके भी परिस्पन्द पाया जाता है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि, कर्मजनित चैतन्यपरिस्पन्द ही आश्रवका कारण है, यहां अर्थ यहां पर विवक्षित है। मेघोंका परिस्पन्द कर्मजनित तो है नहीं, जिससे वह कर्मबन्धके आश्रवका हेतु हो सके, अर्थात् नहीं हो सकता है।।
अब चैक्रियककाययोगके सद्भावके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते है
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