Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ६०. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं
विग्रहो देहस्तदर्था गतिः विग्रहगतिः । औदारिकादिशरीरनामोदयात्स्वनिर्वर्तनसमर्थान् विविधान् पुद्गलान् गृह्णाति विगृह्यतेऽसौ संसारिणा इति वा विग्रहो देहः । विग्रहाय गतिः विग्रहगतिः । अथवा विरुद्धो ग्रहो विग्रहः व्याघातः पुद्गलादाननिरोध इत्यर्थः । विग्रहेण पुद्गलादाननिरोधेन गतिः विग्रहगतिः । अथवा विग्रहो व्याघातः कौटिल्यमित्यनर्थान्तरम् । विग्रहेण कौटिल्येन गतिः विग्रहगतिः । तां सम्यगापन्नाः प्राप्ताः विग्रहगतिसमापन्नाः, तेषां विग्रहगतिसमापन्नानाम् । सर्वाणि शरीराणि यतः प्ररोहन्ति तद्वीजभूतं कार्मणशरीरं कार्मणकाय इति भण्यते । वाङ्मनः कायवर्गणानिमित्तः आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगो भवति । कार्मणकायकृतो योगः कार्मणकाययोगः । स विग्रहगतौ वक्रगतौ वर्तमानजीवानां भवति । एतदुक्तम्, गतेर्गत्यन्तरं व्रजतां प्राणिनां चतस्रो गतयो भवन्ति इषुगतिः पाणिमुक्ता लाङ्गलिका गोमूत्रिका चेति । तत्राविग्रहा प्राथमिकी, शेषाः विग्रहवत्यः । ऋज्वी गतिरिषुगतिरैकसमयिकी । यथा पाणिना तिर्यक्प्रक्षिप्तस्य
प्राप्त केवली जिनके कार्मणकाययोग होता है ॥ ६० ॥
विग्रह देहको कहते हैं । उसके लिये जो गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं । यह जीव औदारिक आदि शरीर नामकर्मके उदयसे अपने अपने शरीरकी रचना करनेमें समर्थ नाना प्रकारके पुलोंको ग्रहण करता है, अतएव संसारी जीवके द्वारा शरीरका ग्रहण किया जाता है । इसलिये देहको विग्रह कहते हैं । ऐसे विग्रह अर्थात् शरीरके लिये जो गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं । अथवा, 'वि' शब्दका अर्थ विरुद्ध और 'ग्रह ' शब्दका अर्थ घात होनेसे विग्रह शब्दका अर्थ व्याघात भी होता है। जिसका अर्थ पुगलों के ग्रहण करनेका निरोध होता है । इसलिये विग्रह अर्थात् पुगलोंके ग्रहण करनेके निरोधके साथ जो गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं । अथवा, विग्रह व्याघात और कौटिल्य ये पर्यायवाची नाम हैं । इसलिये विग्रहसे अर्थात् कुटिलता ( मोडों ) के साथ जो गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं । उसको भली प्रकार से प्राप्त जीव विग्रहगतिसमापन्न कहलाते हैं । उनके अर्थात् विग्रहगतिको प्राप्त जीवोंके कार्मणकाययोग होता है । जिससे संपूर्ण शरीर उत्पन्न होते हैं, उस बीजभूत कार्मणशरीरको कार्मणकाय कहते हैं । वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायघर्गणा के निमित्तसे जो आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द होता है उसे योग कहते हैं । कार्मणकायसे जो योग उत्पन्न होता है उसे कार्मणकाययोग कहते हैं । वह विग्रहगति अर्थात् वक्रगतिमें विद्यमान जीवोंके होता है । आगममें ऐसा कहा है कि एक गतिसे दूसरी गतिको गमन करनेवाले जीवोंके चार गतियां होती हैं, इषुगति, पाणिमुक्तागति, लांगलिकागति और गोमूत्रिकागति । उनमें पहली गति विग्रहराहत होती है और शेष गतियाँ विग्रहसहित होती हैं। सरल अर्थात् धनुषसे छूटे हुऐ बाणके समान मोड़ारहित गतिको इबुगति
१ त. रा. वा. २. २५. वा. १-३.
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