Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ६०.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवर्ण
[ ३०३ श्रेण्यारोहणदर्शनात् । न तत्र संसारसमानकर्मस्थितयः समुद्घातेन विना स्थितिकाण्डकानि अन्तर्मुहूर्तेन निपतनस्वभावानि पल्योपमस्यासंख्येयभागायतानि संख्येयावलिकायतानि च निपातयन्तः आयुःसमानि कर्माणि कुर्वन्ति । अपरे समुद्घातेन समानयन्ति । न चैप संसारघातः केवलिनि प्राक् सम्भवति स्थितिकाण्डघातवत्समानपरिणामत्वात् । परिणामातिशयाभावे पश्चादपि मा भूत्तद्वात इति चेन्न, वीतरागपरिणामेषु समानेषु सत्स्वन्येभ्योऽन्तर्मुहूर्तायुरपेक्ष्य आत्मनः समुत्पन्नेभ्यस्तद्धातोपपत्तेः । अन्यैराचार्यैरव्याख्यातमिममर्थ भणन्तः कथं न सूत्रप्रत्यनीकाः ? न, वर्षपृथक्त्वान्तरसूत्रवशवर्तिनां तद्विरोधात् ।
छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं णाणं । स-समुग्घाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए ॥ १६७ ॥
है। अतः वहां पर संसार व्यक्तिके समान कर्मस्थिति नहीं पाई जाती है । इसप्रकार अन्तमुहूर्तमें नियमसे नाशको प्राप्त होनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात आवलीप्रमाण स्थिति काण्डकोंका विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्धातके विना ही आयुके समान शेष कौंको कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्धातके द्वारा शेष कर्मोंको आयुकर्मके समान करते हैं। परंतु यह संसारका घात केवलीमें पहले संभव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थितिकाण्डकके घातके समान सभी जीवोंके समान परिणाम पाये जाते हैं।
शंका-जब कि परिणामोंमें कोई अतिशय नहीं पाया जाता है, अर्थात् सभी केवलियोंके परिणाम समान होते हैं तो पीछे भी संसारका घात मत होओ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, वीतरागरूप परिणामोंके समान रहने पर भी अन्तमुहूर्तप्रमाण आयुकर्मकी अपेक्षासे आत्माके उत्पन्न हुए अन्य विशिष्ट परिणामोंसे संसारका घात बन जाता है।
शंका--अन्य आचार्योंके द्वारा नहीं व्याख्यान किये गये इस अर्थका इसप्रकार व्याख्यान करते हुए आप सूत्रके विरुद्ध जा रहे हैं, ऐसा क्यों न माना जाय ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, वर्षपृथक्त्वके अन्तरालका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रके वशवर्ती आचार्योंका ही पूर्वोक्त कथनसे विरोध आता है
शंका-'छह माह प्रमाण आयुकर्मके शेष रहने पर जिस. जीवको केवलझान उत्पन्न हुआ है वह समुद्धातको करके ही मुक्त होता है। शेष जीव समुद्धात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं' ॥ १६७ ॥
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१ ठिदिसंतकम्मसमकरणत्थं सबसि तसि कम्माणं । अंतोमुहुत्तससे जति समुग्घादमाउम्मि ॥ उल्लं संतं वत्थं विरल्लिद जह लहुं विणिव्वाइ। संवेढियं तु ण तधा तधेव कम्मं पि णादव्वं ॥ मूलारा. २१०८, २१०९. जह उल्ला साडीया आसुं सुका विरेल्लिया संती। तह कम्मलहुयसमए वच्चंति जिणा समुग्घायं ॥ वि. भा. ३६५०.
२ उकस्सएण छम्मासाउगसेसम्मि केवली जादा । वच्चति समुग्घादं सेसा भज्जा समुग्घादे॥ मूलारा.
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