Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ६७.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं
[ ३०९ द्विसंयोगप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह
वचिजोगो कायजोगो बीइंदिय-प्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति ॥ ६६॥
अत्र सामान्यवाकाययोर्विवक्षितत्वात् द्वीन्द्रियादिर्भवत्यसंज्ञिनश्च पर्यवसानम् । विशेषे तु पुनरवलम्ब्यमाने तुरीयस्यैव वचसः सत्त्वमिति । तदाद्यन्तव्यवहारो न घटामटेत्, उपरिष्टादपि वाकाययोगी विद्यते ततो नासंज्ञिनः पर्यवसानमिति चेन्न, उपरि त्रयाणामपि सत्त्वात् । अस्तु चेन्न, निरुद्धद्विसंयोगस्य त्रिसंयोगेन सह विरोधात् ।
एकसंयोगप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह - कायजोगो एइंदियाणं ॥ ६७ ॥
एकेन्द्रियाणामेकः काययोग एव, द्वीन्द्रियादीनामसंक्षिपर्यन्तानां वाकाययोगौ द्वावेव, शेषास्त्रियोगाः।
अब द्विसंयोगी योगोंके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंवचनयोग और काययोगद्वीन्द्रिय जीवोंसे लेकर असंशी पंचेन्द्रिय जीवों तक होते हैं॥६६॥
यहां पर सामान्य वचन और काययोगकी विवक्षा होनेसे द्वीन्द्रियसे लेकर असंही पंचेन्द्रिय तक सामान्यसे दोनों योग पाये जाते हैं। किंतु विशेषके अवलम्बन करने पर तो द्वीन्द्रियसे असंज्ञतिक वचनयोगके चौथे भेद (अनुभयवचन) का ही सत्व समझना चाहिये।
शंका-- इन दोनों योगोंका द्वीन्द्रियसे आदि लेकर असंक्षीपर्यन्त जो सद्भाव बताया है, यह आदि और अन्तका व्यवहार यहां पर घटित नहीं होता है, क्योंकि, इन जीवोंसे आगेके जीवोंके भी वचन और काययोग पाये जाते हैं। इसलिये असंक्षीतक ये योग होते हैं, यह बात नहीं बनती है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, आगेके जीवोंके तीनों योगोंका सत्त्व पाया जाता है।
शंका-यदि ऊपर तीन योगोंका सत्त्व है तो रहा आवे, फिर भी इन दो योगोंके कथन करने में क्या हानि है?
समाधान नहीं, क्योंकि, द्विसंयोगी योगका त्रिसंयोगी योगके साथ कथन करने में विरोध आता है। इसलिये द्विसंयोगी योगका असंहीतक ही कथन किया है।
अब एक संयोगी योगके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंकाययोग एकेन्द्रिय जीवोंके होता है ॥ ६७ ॥
एकेन्द्रिय जीवोंके एक काययोग ही होता है। द्वान्द्रियसे लेकर असंहीतक जीवों के वचन और काय ये दो योग ही होते हैं। तथा, शेष जीवोंके तीनों ही योग होते हैं।
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