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१, १, ६४.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं
[ ३०७ असंयमबहुलतोत्पन्नप्रमादश्च । न च प्रमादनिबन्धनोऽप्रमादिनि भवेदतिप्रसङ्गात् । अथवा स्वभावोऽयं यदाहारकाययोगः प्रमादिनामेवोपजायते, नाप्रमादिनामिति ।
कामेणकाययोगाधारजीवप्रतिपादनाथेमुत्तरसूत्रमाह
कम्मइयकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि ति ॥ ६४ ॥
देशविरतादिक्षीणकषायान्तानामपि कार्मणकाययोगस्यास्तित्वं प्रामोत्यस्मात्सूत्रादिति चेन्न, 'संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता'' इत्येतस्मात्सूत्रात्तत्र तदभावावगतेः । न च समुद्धाताहते पर्याप्तानां कार्मणकाययोगोऽस्ति । किमिति स तत्र नास्तीति चेद्विग्रहगतेरभावात् । देवविद्याधरादीनां पर्याप्तानामपि वक्रा गतिरुपलभ्यते चेन्न, पूर्वशरीरं परित्यज्योत्तरशरीरमादातुं व्रजतो वक्रगतेर्विवक्षितत्वात् ।
समाधान- आशाकनिष्ठता अर्थात् आप्तवचनमें सन्देहजनित शिथिलताके होनेसे उत्पन्न हुआ प्रमाद और असंयमकी बहुलतासे उत्पन्न प्रमाद आहारककायकी उत्पत्तिका निमित्त. कारण है। जो कार्य प्रमादके निमित्तसे उत्पन्न होता है, वह प्रमादरहित जीवमें नहीं हो सकता है। अथवा, यह स्वभाव ही है कि आहारककाययोग प्रमत्त गुणस्थानवालोंके ही होता है, प्रमादरहित जीवोंके नहीं।
अब कार्मणकाययोगके आधारभूत जीवोंके प्रतिपादनार्थ आगेका सूत्र कहते हैंकार्मणकाययोग एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर सयोगिकेवली तक होता है ॥६४॥
शंका-इस सूत्रके कथनसे देशविरत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानतक भी कार्मणकाययोगका अस्तित्व प्राप्त होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, 'संजदासंजदट्ठाणे णियमा पजत्ता' अर्थात् संयतासंयत गुणस्थानमें जीव नियमसे पर्याप्त ही होते हैं, इस सूत्रके अनुसार यहां पर कार्मण
ययोगका अभाव ज्ञात हो जाता है। यहांपर संयतासंयत पद उपलक्षण होनेसे पांचवेंसे ऊपर सभी पर्याप्त गुणस्थानोंका सूचक है । दूसरे समुद्धातको छोड़कर पर्याप्तक जीवोंके कार्मणकाययोग नहीं पाया जाता है।
शंका-पर्याप्तक जीवोंमें कार्मणकाययोग क्यों नहीं होता है ? समाधान-विग्रहगतिका अभाव होनेसे उनके कार्मणकाययोग नहीं होता है। शंका- देव और विद्याधर आदि पर्याप्तक जीवोंके भी वक्रगति पाई जाती है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, पूर्व शरीरको छोड़कर आगेके शरीरको ग्रहण करनेके लिये जाते हुए जीवके जो एक, दो या तीन मोड़ेवाली गति होती है, वही गति यहां पर वक्रगतिरूपसे विवक्षित है। .
१ ओरालियामिस्सं वा चउगुणहाणेसु होदि कम्मइयं । चदुगदिविग्गहकाले जोगिस्स पदरलोगपूरणगे ॥ गो. जी..६८४.
२जी. सं. सू. ८३.
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