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३०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ६३, अत्र 'च' शब्दः कर्तव्योऽन्यथा समुच्चयावगमानुपपत्तेरिति न, च-शब्दमन्तरेणापि समुच्चयार्थावगतेः यथा पृथिव्यप्तेजोवायुरित्यत्र । सम्यमिथ्यादृष्टेरपि वैक्रियकमिश्रकाययोगः प्राप्नुयादिति चेन, उक्तोत्तरत्वात् । ' सम्मामिच्छाइटि-ट्ठाणे णियमा पज्जत्ता, वेउव्विय-मिस्स-कायजोगो अपज्जत्ताणं ' इत्याभ्यां वा सूत्राभ्यामवसीयते यथा न सम्यमिथ्यादृष्टेक्रियकमिश्रकाययोगः समस्तीति ।
आहारकाययोगस्वामिप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह
आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एकाम्हि चेव पमत्तसंजद-ट्टाणे ॥ ६३॥
__ अप्रमादिनां संयतानां किमित्याहारकाययोगो न भवेदिति चेन्न, तत्र तदुत्थापने निमित्ताभावात् । तदुत्थापने किं निमित्तमिति चेदाज्ञाकनिष्ठतायाः समुत्पन्नप्रमादः
शंका-इस सूत्रमें च शब्द और अधिक जोड़ देना चाहिये, अन्यथा समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो सकेगा ? |
समाधान नहीं, क्योंकि, च शब्दके विना भी समुच्चयरूप अर्थका शान हो जाता है। जैसे, 'पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः' इस सूत्रमें च शब्दके नहीं रहने पर भी समु. श्वयरूप अर्थका ज्ञान हो जाता है।
शंका-सूत्रके कथनानुसार सम्यग्मिथ्यादष्टि गुणस्थानवालेके भी वैक्रियकमिश्रकाय. योगका सद्भाव मानना पड़ेगा?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इसका उत्तर औदारिकमिश्रकाययोगके प्रकरणमें दे आये हैं । अर्थात् यहां पर प्रभृति शब्द व्यवस्था या प्रकारवाची होनेसे पूर्वोक्त दोष नहीं आता है। अथवा, 'सम्मामिच्छाइटिट्ठाणे णियमा पजत्ता' 'वेउब्धियमिस्सकायजोगो अपजत्ताणं' अर्थात् 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक ही होते हैं, अथवा, वैक्रियकमिश्रकाय. योग अपर्याप्तकोंके ही होता है, इन दोनों सूत्रोंसे भी जाना जाता है कि सम्यग्यिथ्यादृष्टिके वैक्रियकमिश्रकाययोग नहीं पाया जाता है।
आहारककाययोगके स्वामीके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंआहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग एक प्रमत्त गुणस्थानमें ही होते हैं॥६३॥ शंका-प्रमादरहित संयतोंके आहारककाययोग क्यों नहीं होता है ?
समाधान-प्रमादरहित जीवोंके आहारककाययोगके उत्पन्न करानेमें निमित्तकारणका अभाव है।
शंका-आहारककाययोगके उत्पन्न कराने में निमित्तकारण क्या है ? १ जी. सं. सू. ८३.
२ आहारो एज्जत्तो इदरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु। अंतोमुहुत्तकाले छट्ठगुणे होदि आहारो ॥ गो. जी. ६८३.
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