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२९८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ६०० समाढौकते। यतो नाहारर्द्धिरात्मानमपेक्ष्योत्पद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । अपि तु संयमातिशयापेक्षया तस्याः समुत्पत्तिरिति । ऋद्धिप्राप्तसंयतानामिति विशेषणमपि घटते तदनुत्पत्तावपि ऋद्धिहेतुसंयमः ऋद्धिः कारणे कार्योपचारात् । ततश्चर्द्धिहेतुसंयमप्राप्ताः यतयः ऋद्धिप्राप्तास्तेषामाहारर्द्धिरिति सिद्धम् । संयमविशेषजनिताहारशरीरोत्पादनशक्तिराहारर्द्धिरिति वा नेतरेतराश्रयदोषः । न द्वितीयविकल्पोक्तदोषोऽप्यनभ्युपगमात् । नैष नियमोऽप्यस्त्येकस्मिन्नक्रमेण नर्द्धयो भूयस्सो भवन्तीति । गणभृत्सु सप्तानामपि ऋद्धीनामक्रमेण सचोपलम्भात् । आहार या सह मनःपर्ययस्य विरोधो दृश्यत इति चेद्भवतु नाम दृष्टत्वात् । न चानेन विरोध इति सर्वाभिर्विरोधो वक्तं पार्यतेऽव्यवस्थापत्तरिति ।
कार्मणशरीरस्वामिप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह -
कम्मइयकायजोगो विग्गहगइ-समावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं ॥ ६०॥ आहारक ऋद्धि स्वतःकी अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि, स्वतःसे स्वतःकी उत्पत्तिरूप क्रियाके होने में विरोध आता है। किंतु संयमातिशयकी अपेक्षा आहारक ऋद्धिकी उत्पत्ति होती है, इसलिये 'ऋद्धिप्राप्तसंयतानाम् ' यह विशेषण भी बन जाता है। यहां पर दूसरी ऋद्धियोंके उत्पन्न नहीं होने पर भी कारणमें कार्यके उपचारसे ऋद्धिके कारणभूत संयमको ही ऋद्धि कहा गया है, इसलिये ऋद्धिके कारणरूप संयमको प्राप्त संयतोंको ऋद्धिप्राप्त संयत कहते हैं, और उनके आहारक ऋद्धि होती है, यह बात सिद्ध हो जाती है । अथवा, संयमविशेषसे उत्पन्न हुई आहारकशरीरके उत्पादनरूप शक्तिको आहारक ऋद्धि कहते हैं, इसलिये भी इतरेतराश्रय दोष नहीं आता है। इसीप्रकार दूसरे विकल्पमें दिया गया दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, एक ऋद्धिके साथ दूसरी ऋद्धियां नहीं होती हैं, यह हम मानते ही नहीं हैं । एक आत्मामें युगपत् अनेक ऋद्धियां उत्पन्न नहीं होती हैं, यह कोई नियम नहीं है, क्योंकि, गणधरोंके एकसाथ सातों ही ऋद्धियोंका सद्भाव पाया जाता है।
शंका- आहारक ऋद्धिके साथ मनःपर्ययज्ञानका तो विरोध देखा जाता है ?
समाधान- यदि आहारक ऋद्धिके साथ मनःपर्ययज्ञानका विरोध देखनेमें आता है तो रहा आवे। किंतु मनःपर्ययके साथ विरोध है, इसलिये आहारक ऋद्धिका दूसरी संपूर्ण ऋद्धियोंके साथ विरोध है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अन्यथा अव्यवस्थाकी आपत्ति आ जायगी।
अब कार्मणशरीरके स्वामीके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंविग्रहगतिको प्राप्त चारों गतियोंके जीवोंके तथा प्रतर और लोकपूरण समुद्धातको १ 'क' प्रतौ · ये तपऋद्धिप्राप्ताः' इति पाठः ।
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