Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ५३. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं
वचसो भेदमभिधाय गुणस्थानेषु तत्सच्चप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाहवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो बीइंदिय-पहुडि जाव सजोगि केवल त्ति ॥ ५३ ॥
असत्यमोपमनोनिबन्धनवचनमसत्यमोषवचनमिति प्रागुक्तम्, तद् द्वीन्द्रियादीनां मनोरहितानां कथं भवेदिति नायमेकान्तोऽस्ति सकलवचनानि मनस एव समुत्पद्यन्त इति मनोरहितकेवलिनां वचनाभावसंजननात् । विकलेन्द्रियाणां मनसा विना न ज्ञानसमुत्पत्तिः । ज्ञानेन विना न वचनप्रवृत्तिरिति चेन्न मनस एव ज्ञानमुत्पद्यत इत्येकान्ताभावात् । भावे वा नाशेषेन्द्रियेभ्यो ज्ञानसमुत्पत्तिः मनसः समुत्पन्नत्वात् । नैतदपि दृष्टश्रुतानुभूतविषयस्य मानसप्रत्ययस्यान्यत्र वृत्तिविरोधात् । न चक्षुरादीनां सहकार्यपि प्रयत्नात्मसहकारिभ्यः इन्द्रियेभ्यस्तदुत्पत्त्युपलम्भात् । समनस्केषु ज्ञानस्य प्रादुर्भावो मनोयोगादेवेति चेन्न,
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जीवों की भाषा और संज्ञी जीवोंकी आमन्त्रणी आदि भाषाएं इसके उदाहरण हैं ॥ १५७ ॥ इसप्रकार वचनयोगके भेद कहकर अब गुणस्थानों में उसके सत्वके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
सामान्य से वचनयोग और विशेषरूपसे अनुभयवचनयोग द्वीन्द्रिय जीवोंसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक होता है ॥ ५३॥
शंका- अनुभयरूप मनके निमित्तसे जो वचन उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुभवचन कहते हैं, यह बात पहले कही जा चुकी है। ऐसी हालत में मनरहित द्वीन्द्रियादिक जीवोंके अनुभवचन कैसे हो सकते हैं ?
समाधान - यह कोई एकान्त नहीं है कि संपूर्ण वचन मनसे ही उत्पन्न होते हैं । यदि संपूर्ण वचनोंकी उत्पत्ति मनसे ही मान ली जावे तो मनरहित केवलियोंके वचनोंका अभाव प्राप्त हो जायगा ।
शंका - विकलेन्द्रिय जीवों के मनके विना ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है और ज्ञानके विना वचनोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, मनसे ही ज्ञानकी उत्पत्ति होती है यह कोई एकान्त नहीं है । यदि मनसे ही ज्ञानकी उत्पत्ति होती है यह एकान्त मान लिया जाता है, तो संपूर्ण इन्द्रियोंसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि, संपूर्ण ज्ञानकी उत्पत्ति मनसे मानते हो । अथवा, मनसे समुत्पन्नत्वरूप धर्म इन्द्रियोंमें रह भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, दृष्ट, श्रुत और अनुभूतको विषय करनेवाले मानसज्ञानका दूसरी जगह सद्भाव माननेमें विरोध आता है । यदि मनको चक्षु आदि इन्द्रियोंका सहकारी कारण माना जावे सो भी नहीं बनता है, क्योंकि, प्रयत्न और आत्मा के सहकार की अपेक्षा रखनेवाली इन्द्रियोंसे इन्द्रियज्ञानकी उत्पत्ति पाई जाती है ।
शंका-समनस्क जीवों में तो ज्ञानकी उत्पत्ति मनोयोग से ही होती है ?
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