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[१, १,५६.
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं आहरदि अणेण मुणी सुहुमे अढे सयस्स संदेहे'। गत्ता केवलि-पासं तम्हा आहारको जोगो ॥ १६४ ॥ आहारयमुत्तत्थं वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णं ति । जो तेग संपयोगो आहारयमिस्सको जोगो ॥१६५ ॥
विशेषार्थ-मिश्रयोग तीन हैं, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियकमिश्रकाययोग और आहारकमिश्रकाययोग। इनमेंसे औदारिकमिश्र मनुष्य और तिर्यंचके जन्मके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक और केवळी समुद्धातकी कपाटद्वयरूप अवस्थामें होता है । वैक्रियकमिश्र देव और नारकियोंके जन्मके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्ततक होता है । आहारकमिश्र छटे गुणस्थानवी जीवके आहारकसमुद्धात निकलते समय अपर्याप्त अवस्थामें होता है। इन तीनों मिश्रयोगों में केवल विवक्षित शरीरसंबन्धी वर्गणाओंके निमित्तसे आत्मप्रदेश-परिस्पन्द नहीं होता है, किंतु कार्मणशरीरके संबन्धसे युक्त होकर ही औदारिक आदि शरीरसंबन्धी वर्गणाओंके निमित्तसे योग होता है, इसलिये इन्हें मिश्रयोग कहा है । परंतु इतनी विशेषता है कि गोम्मटसार जीवकाण्डकी टीकामें आहारकसमुद्धातके पहले होनेवाले औदारिकशरीरकी वर्गणाओंके मिश्रणसे आहारककायमिश्रयोग कहा है और यहां पर कार्मणस्कन्धके मिश्रणसे आहारककायमिश्रयोग कहा है। इन दोनों कथनों पर विचार करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि गोम्मटसारकी टीकाके अभिप्रायसे आहारकमिश्रयोगतक औदारिकशरीरसंबन्धी वर्गणाएं आती रहती हैं और धवलाके अभिप्रायसे आहारकमिश्रयोगके प्रारंभ होते ही औदारिकशरीरसंबन्धी वर्गणाओंका आना बन्द हो जाता है। कहा भी है
छटवें गुणस्थानवर्ती मुनि अपनेको संदेह होने पर जिस शरीरके द्वारा केवलीके पास जाकर सूक्ष्म पदार्थोंका आहरण करता है उसे आहारक शरीर कहते हैं, इसलिये उसके द्वारा होनेवाले योगको आहारककाययोग कहते हैं ॥ १६४ ॥
___ आहारकका अर्थ कह आये है। वह आहारकशरीर जबतक पूर्ण नहीं होता है तबतक उसको आहारकमिश्र कहते हैं। और उसके द्वारा जो संप्रयोग होता है उसे आहारकमिश्रकाययोग कहते हैं ॥ १६५ ॥
प्रदेशपरिस्पन्दः स आहारककायमिश्रयोगः । गो. जी., जी. प्र., टी. २४०.
१ऋद्धिप्राप्तस्यापि प्रभचसंयतस्य श्रुतज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशममांये सति यदा धर्यध्यानविरोधी भ्रतार्थसंदेहः स्यात्तदा तत्संदेहविमाशार्थ च आहारकशरीरमुत्तिष्ठतीत्यर्थः । गो. जी., जी. प्र., टी. २३५.
२ गो. जी. २३९. णियखेत्ते केवलिदुगविरहे णिकमणपहुदिकल्लाणे। परखेत्ते संवित्ते जिणजिणघरवंदगढ़ च ॥ उत्तमअंगम्हि हवे धादुविहीणं सुई असंहणणं । सुहसंठाणं धवलं हत्थपमाणं पसत्युदयं ॥ गो. जी. २३६, २३७.
३ गो. जी. २४०.
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