Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२८१ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ५०. सिद्धेः। साक्षरत्वे च प्रतिनियतैकभाषात्मकमेव तद्वचनं नाशेषभाषारूपं भवेदिति चेन्न, क्रमविशिष्टवर्णात्मकभूयःपतिकदम्बकस्य प्रतिप्राणिप्रवृत्तस्य ध्वनेरशेषभाषारूपत्वाविरोधात् । तथा च कथं तस्य ध्वनित्वमिति चेन्न, एतद्भापारूपमेवेति निर्देष्टुमशक्यत्वतः तस्य ध्वनित्वसिद्धेः । अतीन्द्रियज्ञानत्वान्न केवलिनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनसः सत्त्वात् । भवतु द्रव्यमनसः सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभावः, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येव तस्य प्रतिवन्धकत्वाभावात् । तेनात्मनो
शंका-केवलीकी ध्वनिको साक्षर मान लेने पर उनके वचन प्रतिनियत एक भाषारूप ही होंगे, अशेष भाषारूप नहीं हो सकेंगे ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, क्रमविशिष्ट, वर्णात्मक, अनेक पंक्तियोंके समुच्चयरूप और सर्व श्रोताओं में प्रवृत्त होनेवाली ऐसी केवलीकी ध्वनि संपूर्ण भाषारूप होती है ऐसा मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है।
शंका-जब कि वह अनेक भाषारूप है तो उसे ध्वनिरूप कैसे माना जा सकता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, केवलीके वचन इसी भाषारूप ही हैं, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है, इसलिये उनके बचन ध्वनिरूप हैं यह बात सिद्ध हो जाती है।
शंका-केवलीके अतीन्द्रिय ज्ञान होता है, इसलिये उनके मन नहीं पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उनके द्रव्यमनका सद्भाव पाया जाता है ।
शंका- केवलोके द्रव्यमनका सद्भाव रहा आवे, परंतु वहां पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है?
समाधान-द्रव्यमनके कार्यरूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञानका अभाव भले ही रहा आवे, परंतु द्रव्यमनके उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि, द्रव्यमनकी वर्गणाओंके लानेके लिये होनेवाले प्रयत्नमें कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं पाया जाता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि उस मनके निमित्तसे जो आत्माका परिस्पन्दरूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं।
१ वयणेण विणा अत्थपदुप्पायणं ण संभवई, सुहमत्थाणं सण्णाए परूवणाणुववत दो। ण चाणएए (चाणक्खराए ?) झुणीए अत्थपदुप्पायणं जुज्जदे, अणक्खरभासतिरिक्खे मोतूण अण्णेसिं तत्तो अत्थाबगमाभावादो। ण च दिव्वज्झुणी अणक्खरप्पिया चेव, अट्ठारससत्तसयभासकुभासप्पियत्तादो । धवला अ. पृ. ६९३. सूत्रपौरुषीषु भगवतस्तीर्थकरस्य ताल्वोष्ठपुटविचलनमंतरेण सकलभाषास्वरूपदिव्यध्वनिधर्मकथन विधानं xx कथ्यते । धवला. अ. पृ. ७०६. सा वि य णं भगवओ अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आयरियमणायरियाणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसिरीसिवाणं अप्पणो भासत्ताए परिणमइ । सम. सू. ३४. अष्टादशमहाभाषासप्तशतक्षुल्लकभाषासंयक्षरानक्षरभाषात्मकत्यक्ततालुदंतोष्ठकंठव्यापारभव्यजनानन्दकयुगपत्सवात्तरप्रतिपादकदिव्यध्वन्युपेतः । गो. जी., जी. प्र., टी. १.xx सारयनवत्थणियमहुरगंभीरकोंचणिग्योसदुंदुभिस्सरे उरे वित्थडाए कंठेऽवट्टियाए सिरे समाइण्णाए पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सहए जोयणणीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासति अरिहा
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