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१, १, ५०.] संत-परूवणाणुयोगदारे जोगमग्गणापरूवणं
[२८३ समुत्पत्तये प्रयत्नो मनोयोगः। पूर्वप्रयोगात् प्रयत्नमन्तरेणापि मनसः प्रवृत्तिर्दृश्यते इति चेद्भवतु, न तेन मनसा योगोऽत्र मनोयोग इति विवक्षितः, तन्निमित्तप्रयत्नसम्बन्धस्य परिस्पन्दरूपस्य विवक्षितत्वात् ।।
भवतु केवलिनः सत्यमनोयोगस्य सचं तत्र वस्तुयाथात्म्यावगतेः सत्त्वात् । नासत्यमोषमनोयोगस्य सत्वं तत्र संशयानध्यवसाययोरभावादिति न, संशयानध्यवसायनिवन्धनवचनहेतुमनसोऽप्यसत्यमोषमनस्त्वमस्तीति तत्र तस्य सत्त्वाविरोधात् । किमिति केवलिनो वचनं संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानन्त्याच्छोतुरावरणक्षयोपशमातिशयाभावात् । तीर्थकरवचनमनक्षरत्वाद् ध्वनिरूपं तत एव तदेकम् । एकत्वान्न तस्य द्वैविध्यं घटत इति चेन्न, तत्र स्थादित्यादि असत्यमोषवचनसत्त्वतस्तस्य ध्वनेरनक्षरत्वा
मनकी उत्पत्तिके लिये जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। शंका--पूर्व-प्रयोगसे प्रयत्नके विना भी मनकी प्रवृत्ति देखी जाती है ?
समाधान--यदि प्रयत्नके विना भी मनकी प्रवृत्ति होती है तो होने दो, क्योंकि, ऐसे मनसे होनेवाले योगको मनोयोग कहते हैं, यह अर्थ यहां पर विवक्षित नहीं है। किंतु मनके निमित्तसे जो परिस्पन्दरूप प्रयत्नविशेष होता है, वह यहां पर योगरूपसे विवक्षित है।
__ शंका-- केवली जिनके सत्यमनोयोगका सद्भाव रहा आवे, क्योंकि, वहां पर वस्तुके यथार्थ ज्ञानका सद्भाव पाया जाता है। परंतु उनके असत्यमृषामनोयोगका सद्भाव संभव नहीं है, क्योंकि, वहां पर संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञानका अभाव है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, संशय और अनध्यवसायके कारणरूप वचनका कारण मन होनेसे उसमें भी अनुभयरूप धर्म रह सकता है । अतः सयोगी जिनमें अनुभय मनोयोगका सद्भाव स्वीकार कर लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है।
__शंका-केवलीके वचन संशय और अनध्यवसायको पैदा करते हैं इसका क्या तात्पर्य है?
समाधान-केवलोके ज्ञानके विषयभूत पदार्थ अनन्त होनेसे और श्रोताके आवरण. कर्मका क्षयोपशम अतिशयरहित होनेसे केवलीके वचनोंके निमित्तसे संशय और अनध्यवसायकी उत्पत्ति हो सकती है।
शंका-तीर्थकरके वचन अनक्षररूप होनेके कारण ध्वनिरूप हैं, और इसलिये वे एकरूप हैं, और एकरूप होनेके कारण वे सत्य और अनुभय इसप्रकार दो प्रकारके नहीं हो सकते हैं ?
समाधान---नहीं, क्योंकि, केवलोके वचनमें 'स्यात्' इत्यादिरूपसे अनुभयरूप वचनका सद्भाव पाया जाता है, इसलिये केवलीकी ध्वनि अनक्षरात्मक है यह बात आसिद्ध है।
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