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१, १, ३३.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं
[२३३ ट्ठिया, सिया अट्ठिया, सिया ट्ठियाट्ठिया" इति वेदनासूत्रतोऽवगतभ्रमणेषु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु सर्वजीवानामान्ध्यप्रसङ्गादिति नैष दोषः, सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । न सर्वावयवैः रूपाद्युपलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिर्वृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् । कर्मस्कन्धैः सह सर्वजीवावयवेषु भ्रमत्सु तत्समवेतशरीरस्यापि तद्वद्धमो भवेदिति
चक्षु आदि इन्द्रियोंका क्षयोपशम माना जाय, सो भी कहना नहीं बनता है, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर 'आत्मप्रदेश चल भी हैं, अचल भी हैं और चलाचल भी हैं' इसप्रकार वेदनाप्राभृतके सूत्रसे आत्मप्रदेशोंका भ्रमण अवगत हो जाने पर, जीवप्रदेशोंकी भ्रमणरूप अवस्थामें संपूर्ण जीवोंको अन्धपनेका प्रसंग आ जायगा, अर्थात् उस समय चक्षु आदि इन्द्रियां रूपादिको ग्रहण नहीं कर सकेंगी?
__समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवके संपूर्ण प्रदेशोंमें क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार की है। परंतु ऐसा मान लेने पर भी, जीवके संपूर्ण प्रदेशोंके द्वारा रूपादिकी उपलब्धिका प्रसंग भी नहीं आता है, क्योंकि, रूपादिके ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्य निर्वृत्ति जीवके संपूर्ण प्रदेशोंमें नहीं पाई जाती है।
विशेषार्थ- ऊपर अभ्यन्तर निर्वृत्तिकी रचना दो प्रकारसे बतला आये हैं। प्रथम, लोकप्रमाण आत्मप्रदेशोंकी इन्द्रियाकार रचनाको अभ्यन्तर निवृत्ति कहा है। दूसरे, उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण आत्मप्रदेशोंकी इन्द्रियाकार रचनाको अभ्यन्तर निर्वृत्ति कहा है। इसप्रकार अभ्यन्तर निर्वृत्तिकी रचना दो प्रकारसे बतलानेका यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि स्पर्शन-इन्द्रिय सर्वांग होती है, इसलिये स्पर्शनेन्द्रियसंबन्धी अभ्यन्तर निर्वृत्ति भी सर्वांग होगी। इस अपेक्षासे लोकप्रमाण आत्मप्रदेशोंकी इन्द्रियाकार रचना अभ्यन्तर निवृत्ति कहलाती है, यह कथन बन जाता है और शेष इन्द्रियसंबन्धी अभ्यन्तर निर्वृत्ति उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाती है। अथवा, 'सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् ' अर्थात् जीवके संपूर्ण अवयवों में क्षयोपशमकी उत्पत्ति स्वीकार की है, ऊपर कहे गये इस वचनके अनुसार प्रत्येक इन्द्रियावरण कर्मका क्षयोपशम सर्वांग होता है, इसलिये पांचों इन्द्रियोंकी अभ्यन्तर निर्वृत्ति सर्वांग होना संभव है। किंतु इतनी विशेषता समझ लेना चाहिये कि स्पर्शनेन्द्रियकी अभ्यन्तर निर्वृतिको छोड़कर शेष इन्द्रियसंबन्धी अभ्यन्तर निवृत्ति उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण आत्मप्रदेशोंमें ही व्यक्त होती है।
शंका-कर्मस्कन्धोंके साथ जीवके संपूर्ण प्रदेशोंके भ्रमण करने पर, जीवप्रदेशोंसे
१ वे. वे. सु. ५-७. स्थितास्थितवचनात् । xx तत्र सर्वकालं जीवाष्टमध्यमप्रदेशाः निरपवादाः सर्व. जीवानां स्थिता एव । केवलिनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वप्रदेशाः स्थिता एव । व्यायामदुःखपरितापोद्रेकपरिणतानां जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेशवर्जितानां इतरे प्रदेशाः अस्थिता एव । शेषाणां प्राणिनां स्थिताश्चास्थिताश्चेति वचनात् । त. रा. वा. ५. ८. १४.
२ प्रतिषु मान्ध' इति पाठः।
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