Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ३३.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं
[ २३९ न ग्रहणयोग्यश्चेन्न, तस्यैव स्थूलकार्याकारेण परिणतौ योग्यत्वोपलम्भात्। के त एकेन्द्रियाः? पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः । एतेषां स्पर्शनमेकमेवेन्द्रियमस्ति, न शेषाणीति कथमवगम्यत इति चेन्न, स्पर्शनेन्द्रियवन्त एत इति प्रतिपादकार्पोपलम्भात् । क्व तत्सूत्रमिति चेत्कथ्यते
जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि पस्सिदिएण एक्केण ।।
कुणदि य तस्सामित्तं थावरु एइंदिओ तेण ॥ १३५ ॥ 'वनस्पत्यन्तानामेकम्' इति तत्त्वार्थसूत्राद्वा । अस्यार्थः, अयमन्तशब्दोऽनेकार्थवाचकः, क्वचिदवयवे, यथा वस्त्रान्तो वसनान्त इति । क्वचित्सामीप्ये, यथा उदकान्तं गत', उदकसमीपं गत इति । क्वचिदवसाने वर्तते, यथा संसारान्तं गतः, संसारावसानं
शंका-परमाणुमें रहनेवाला स्पर्श तो इन्द्रियोंद्वारा कभी भी ग्रहण करने योग्य नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जब परमाणु स्थूल कार्यरूपसे परिणत होते हैं, तब तद्गत धौकी इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण करनेकी योग्यता पाई जाती है।
शंका-वे एकेन्द्रिय जीव कौन कौनसे हैं ? समाधान-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, और वनस्पति, ये पांच एकेन्द्रिय जीव हैं।
शंका-इन पांचोंके एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, शेष इन्द्रियां नहीं होती, यह कैसे जाना?
समाधान--नहीं, क्योंकि, पृथिवी आदि एकेन्द्रिय जीव एक स्पर्शन-इन्द्रियवाले होते हैं, इसप्रकार कथन करनेवाला आर्ष-वचन पाया जाता है।
शंका-यह आर्ष-वचन कहां पाया जाता है ? समाधान-वह आर्ष-वचन यहां कहा जाता है
क्योंकि, स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिये उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है॥ १३५॥
___अथवा, 'वनस्पत्यन्तानामेकम् ' तत्वार्थसूत्रके इस वचनसे जाना जाता है कि उनके एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। अब इस सूत्रका अर्थ करते हैं, अन्त शब्द अनेक अर्थोका वाचक है। कहीं पर अवयवरूप अर्थमें आता है, जैसे, 'वस्त्रान्तः' अर्थात् वस्त्रका अवयव । कहीं पर समीपताके अर्थमें आता है, जैसे 'उदकान्तं गतः' अर्थात् जलके समीप गया। कहीं पर अवसानरूप अर्थमें आता है, जैसे, 'संसारान्तं गतः' अर्थात् संसारके अन्तको प्राप्त हुआ।
१ त. सू. २. २२. २ पाठोऽयं त. रा. वा. २. २२, वा. १-५ व्याख्यया समानः ।
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