Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२४२] छपखंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ३३. कारके । इन्द्रियाणां स्वातन्त्र्यविवक्षायां पूर्वोक्तहेतुसन्निधाने सति रसयतीति रसनं कर्तृकारके भवति । कोऽस्य विषयः ? रसः। कोऽस्यार्थः ? यदा वस्तु प्राधान्येन विवक्षितं तदा वस्तुव्यतिरिक्तपर्यायाभावाद्वस्त्वेव रसः । एतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं रसस्य, यथा रस्सत इति रसः । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेः औदासीन्यावस्थितभावकथनादावसाधनत्वं रसस्य, रसनं रस इति । न सूक्ष्मेषु परमाण्वादिषु रसाभावः उक्तोत्तरत्वात् । कुत एतयोरुत्पत्तिरिति चेद्वीर्यान्तरायस्पर्शनरसनेन्द्रियावरणक्षयोपशमे सति शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्धकोदये चाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भे द्वीन्द्रियजातिकर्मोदयवशवर्तितायां च सत्यां स्पर्शनरसनेन्द्रिये आविर्भवतः ।
त्रीणि इन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः । के ते ? कुन्थुमत्कुणादयः । उक्तं च--
शंका-रसना इन्द्रियका विषय क्या है ? समाधान-इस इन्द्रियका विषय रस है। शंका-रस शब्दका क्या अर्थ है ?
समाधान-जिस समय प्रधानरूपसे वस्तु विवक्षित होती है, उस समय वस्तुको छोड़कर पर्याय नहीं पाई जाती है, इसलिये वस्तु ही रस है। इस विवक्षामें रसके कर्मसाधनपना है । जैसे, जो चखा जाय, वह रस है। तथा जिस समय प्रधानरूपसे पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्यसे पर्यायका भेद बन जाता है, इसलिये जो उदासीनरूपसे अवस्थित भाव है उसीका कथन किया जाता है । इसप्रकार रसके भावसानपना भी बन जाता है। जैसे, आस्वादनरूप क्रियाधर्मको रस कहते हैं । सूक्ष्म परमाणु आदिमें रसका अभाव हो जायगा, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इसका उत्तर पहले दे आये हैं।
शंका-स्पर्शन और रसना इन दोनों इन्द्रियोंकी उत्पत्ति किस कारणसे होती है? .
समाधान-वीर्यान्तराय और स्पर्शन व रसनेन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशम होने पर, शेष इन्द्रियावरण कर्मके सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदय होने पर, आंगोपांग नामकर्मके उदयकी वशवर्तिता होने पर स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां उत्पन्न होती हैं।
जिनके तीन इन्द्रियां होती हैं उन्हें त्रीन्द्रिय जीव कहते हैं। शंका-ये तीन इन्द्रिय जीव कौन कौन हैं ? समाधान-कुन्थु और खटमल आदि त्रीन्द्रिय जीव हैं। कहा भी है
१ प्रबन्धोऽयं त. रा. वा. २. १९-२०, वा. १-१ व्याख्याभ्यां समानः ।
२से किं तं तेइंदिय-संसार-समावन्न-जीवपन्नवणा? तेइंदिय संसारसमावन्न-जीवपन्नवणा अणेगविहा पन्नत्ता । तं जहा, ओवइया, रोहिणिया, कुंथू, पिपीलिया, उसगा, उद्देहिया, उक्कलिया, उप्पाया, उप्पाडा, तणाहारा, कट्ठाहारा, मालुया, पत्ताहारा, तणबेटिया, पत्तबेंटिया, पुप्फटिया, फलबेटिया, बीयबेटिया, तेबुरणमिंजिया, तओसिमिजिया, कप्पासद्विमिंजिया, हिल्लिया, झिल्लिया, झिंगिरा, किंगिरिडा, बाहुया, लहुया, सुभगा, सोवत्थिया. सुयबेटा, इंदकाइया, इंदगोवया, तुरतुंबगा, कुच्छलवाहगा, जूया, हालाहला, पिसुया, सयवाइया, गोम्ही, हथिसोडा,
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