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१, १, ३७.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं [२६३ प्रतिपादितमिति चेन्नैष दोषः, असंज्यादयोऽयोगिकेवलिपर्यन्ताः पञ्चेन्द्रिया इत्यभिहिते पञ्चेन्द्रियेषु गुणस्थानानामियत्तावगतेः । अथ स्यादसंज्यादयोऽयोगिकेवलिपर्यन्ताः किमु पञ्चद्रव्येन्द्रियवन्त उत भावेन्द्रियवन्त इति ? न तावदादिविकल्पः अपर्याप्तजीवैर्व्यभिचारात् । न द्वितीयविकल्पः केवलिभिर्व्यभिचारादिति नैष दोषः, भावेन्द्रियतः पञ्चेन्द्रियत्वाभ्युपगमात्। न पूर्वोक्तदोषोऽपि केवलिनां निर्मूलतो विनष्टान्तरङ्गेन्द्रियाणां प्रहतबाह्येन्द्रियव्यापाराणां भावेन्द्रियजनितद्रव्येन्द्रियसत्त्वापेक्षया पश्चेन्द्रियत्वप्रतिपादनात् , भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणाद्वा । सर्वत्र निश्चयनयमाश्रित्य प्रतिपाद्य अत्र व्यवहारनयः किमित्यवलम्ब्यते इति चेन्नैष दोपः, मन्दमेधसामनुग्रहार्थत्वात् । अथवा नेदं व्याख्यानं समीचीनं दुरधिगमत्वात् , इन्द्रियप्राणैरस्यं पौनरुक्त्यप्रसङ्गात् । किमपरं व्याख्यानमिति
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, असंज्ञीको आदि लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त पंचेन्द्रिय जीव होते हैं, ऐसा कथन कर देने पर पंचेन्द्रियों में गुणस्थानों की संख्याका ज्ञान हो जाता है।
शंका-असंक्षीसे लेकर अयोगिकेवलीतक पंचेन्द्रिय जीव होते हैं यह ठीक है, परंतु वे क्या पांच द्रव्येन्द्रियोंसे युक्त होते हैं या पांच भावेन्द्रियोंसे युक्त होते हैं? इनमें से प्रथम विकल्प तो बन नहीं सकता, क्योंकि, उसके मान लेने पर अपर्याप्त जीवोंके साथ व्यभिचार दोष आता है । अर्थात् अपर्याप्त जीव पंचेन्द्रिय होते हुए भी उनके द्रव्यन्द्रियां नहीं पाई जाती, इसलिये व्याभिचार दोष आता है। इसीप्रकार दूसरा विकल्प भी नहीं बनता, क्योंकि, उसके मान लेने पर केवलियोंसे व्यभिचार दोष आता है । अर्थात् केवली पंचेन्द्रिय होते हुए भी भावेन्द्रियां नहीं पाई जाती हैं, इसलिये व्याभिचार आता है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहां पर भावेन्द्रियोंकी अपेक्षा पंचेन्द्रियपना स्वीकार किया है। और ऐसा मान लेने पर पूर्वोक्त दोष भी नहीं आता है। केवलियोंके यद्यपि भावेन्द्रियां समूल नष्ट हो गई हैं, और बाह्य इन्द्रियोंका व्यापार भी बन्द हो गया है, तो भी (छद्मस्थ अवस्थामें) भावेन्द्रियोंके निमित्तसे उत्पन्न हुई द्रव्येन्द्रियोंके सद्भावकी अपेक्षा उन्हें पंचेन्द्रिय कहा गया है । अथवा भूतपूर्वका ज्ञान करानेवाले न्यायके आश्रयसे उन्हें पंचेन्द्रिय कहा है।
शंका--सब जगह निश्चय नयका आश्रय लेकर वस्तु-स्वरूपका प्रतिपादन करनेके पश्चात् फिर यहां पर व्यवहार नयका आलम्बन क्यों लिया जा रहा है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मन्दबुद्धि शिष्योंके अनुग्रहके लिये उक्तप्रकारसे वस्तुस्वरूपका विचार किया है । अथवा, उक्त व्याख्यानको ठीक नहीं समझना क्योंकि, मन्दबुद्धि शिष्योंके लिये यह व्याख्यान दुरवबोध है। दूसरे इन्द्रिय और प्राणों के साथ इस कथनका पुनरुक्त दोष भी आता है।
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