Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२७० ]
[ १, १, ४१.
पुद्गलविपाकित्वादाहारवर्गणास्कन्धानां कायाकारपरिणमनहेतुभिरौदारिककर्मस्कन्धैः कथं भिन्नजीवफलदातृभिरेकं शरीरं निष्पाद्यते विरोधादिति चेन्न, पुद्गलानामेकदेशावस्थितानामेकदेशावस्थितमिथः समवेतजीवसमवेतानां तत्स्थाशेषप्राणिसम्बन्ध्येकशरीरनिष्पादनं न विरुद्धं साधारणकारणतः समुत्पन्न कार्यस्य साधारणत्वाविरोधात् । कारणानुरूपं कार्यमिति न निषेद्धुं पार्यते सकलनैयायिक लोकप्रसिद्धत्वात् । उक्तं च
साहारणमाहारो साहारणमाणपाण- गहणं च ।
छक्खंडागमे जीवाणं
साहारण जीवाणं साहारण लक्खणं भणियं ॥ १४५ ॥ जत्थेक्कु मरइ जीवो तत्थ दु मरणं हवे अगंताणं ।
कमदि जत्थ एक वक्कमणं तत्थ णंताणं ॥ १४६ ॥ एय- णिगोद- सरीरे जीवा दव्व - माणदो दिवा | सिद्धेहि अनंत गुणा सव्त्रेण वितीद- कालेण ॥ १४७ ॥
शंका - जीवोंसे अलग अलग बंधे हुए, पुद्गलविपाकी होनेसे आहार-वर्गण के स्कन्धोंको शरीरके आकाररूपसे परिणमन करानेमें कारणरूप और भिन्न-भिन्न जीवोंको भिन्नभिन्न फल देनेवाले औदारिक कर्मस्कन्धोंके द्वारा अनेक जीवोंके एक शरीर कैसे उत्पन्न किया जा सकता है, क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, जो एकदेशमें अवस्थित है और जो एकदेशमें अवस्थित तथा परस्पर संबद्ध जीवोंके साथ समवेत हैं, ऐसे पुद्गल वहां पर स्थित संपूर्ण जीवसंबन्धी एक शरीरको उत्पन्न करते हैं इसमें कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, साधारण कारणसे उत्पन्न हुआ कार्य भी साधारण ही होता है । कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध भी तो नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, यह बात संपूर्ण नैयायिक लोगों में प्रसिद्ध है । कहा भी है
साधारण जीवोंका साधारण ही आहार होता है और साधारण ही श्वासोच्छ्रासका ग्रहण होता है । इसप्रकार परमागममें साधारण जीवोंका साधारण लक्षण कहा है ॥ १४९ ॥ साधारण जीवों में जहां पर एक जीव मरण करता है वहां पर अनन्त जीवोंका मरण होता है । और जहां पर एक जीव उत्पन्न होता है वहां पर अनन्त जीवोंका उत्पाद होता है ॥ १४६ ॥
द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा सिद्धराशि और संपूर्ण अतीत कालसे अनन्तगुणे जीव एक निगोद-शरीर में देखे गये हैं ॥ १४७ ॥
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१ गो. जी १९२ . च शब्देन शरीरेन्द्रियपर्याप्तिद्वयं समुच्चयीकृतम् । जी प्र. टी. | आचा. नि. १३६. २ गो. जी. १९३. एकनिगोदशरीरे प्रतिसमयमनन्तानन्तजीवास्तावत् संहेव म्रियते सहैवोत्पद्यन्ते यावदसंख्यातसागरोपमकोटिकोटिमात्री असंख्यात लोकमात्रसमयप्रमिता उत्कृष्ट निगादकायस्थितिः परिसमाप्यते । अत्र विशेषश्च टीकातोऽवसेयः । जी. प्र. टी. ।
३ गो. जी १९६. ननु अष्टसमयाधिकषण्मासाभ्यन्तरे अष्टोत्तरषट्शतजीवेषु कर्मक्षयं कृत्वा सिद्धेषु सत्सु
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