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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, १, ३७.
दोहं एकदरस्स सुत्तत्तादो । दोण्हं मज्झे इदं सुत्तमिदं च ण भवदीदि कधं पञ्चदि ! उवदेसमंतरेण तदवगमाभावा दोन्हं पि संगहो कायव्वो । दोहं संग करेंतो संसयमिच्छाइट्ठी होदि ति तष्ण, सुत्तुद्दिमेव अस्थि त्ति सदहंतस्स संदेहाभावादो । उत्तं चसुत्तादो तं सम्मं दरिसिज्जंतं जदा ग सद्दहदि ।
सो चे हवदि मिच्छाइट्ठी हु तदो पहुडि जीवो' ॥ १४३ ॥ इदि । पञ्चेन्द्रियप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्र माह
पंचिंदिया असण्णिपंचिंदिय पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्तिं ॥ ३७ ॥
पञ्चेन्द्रियेषु गुणस्थानसंख्यामप्रतिपाद्य किमिति असंशिप्रभृतयः पञ्चेन्द्रिया इति सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, दोनों वचन सूत्र नहीं हो सकते हैं, किंतु उन दोनों नसे किसी एक वचनको ही सूत्रपना प्राप्त हो सकता है ।
शंका- दोनों वचनोंमें यह ववन सूत्ररूप है, और यह नहीं, यह कैसे जाना जाय ? समाधान - उपदेशके विना दोनोंमेंसे कौन वचन सूत्ररूप है यह नहीं जाना जा सकता है, इसलिये दोनों वचनों का संग्रह करना चाहिये ।
शंका- दोनों वचनों का संग्रह करनेवाला संशय - मिथ्यादृष्टि हो जायगा ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, संग्रह करनेवालेके ' यह सूत्रकथित ही है' इसप्रकारका श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसके संदेह नहीं हो सकता है । कहा भी है
सूत्र से आचार्यादिके द्वारा भले प्रकार समझाये जाने पर भी यदि वह जीव विपरीत अर्थको छोड़कर समीचीन अर्थका श्रद्धान नहीं करता है, तो उसी समय से वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है ॥ १४३ ॥
पंचेन्द्रियों में गुणस्थानों की संख्या के प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंअसंज्ञी-पंचेन्द्रिय- मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक पंचेन्द्रिय
जीव होते हैं ॥ ३७ ॥
शंका - पंचेन्द्रिय जीवोंमें गुणस्थानोंकी संख्याका प्रतिपादन नहीं करके असंज्ञी आदिक पंचेन्द्रिय होते हैं, ऐसा क्यों कहा ?
भति सिमहिपाएण बारह चोहसभागा देसूणा उववादफोसणं होदि, एदं पि वक्खाणं संतदव्त्रसुतविरुद्ध ति ण घेत्तव्यं । धवला अ. पृ. २६०.
१ गो. जी. २९.
२ पचेन्द्रियेषु चतुर्दशापि सन्ति । स. सि. ९.८,
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