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२६०] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[ १, १, ३५. द्रव्यस्य मनसोऽपर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वेऽङ्गीक्रियमाणे द्रव्यमनसो विद्यमाननिरूपणस्यासत्त्वप्रसङ्गात् । पर्याप्तिनिरूपणात्तदस्तित्वं सिद्धथेदिति चेन्न, बाह्यार्थस्मरणशक्तिनिष्पत्ती पर्याप्तिव्यपदेशतो द्रव्यमनसोऽभावेऽपि पर्याप्तिनिरूपणोपपत्तेः। न बाह्यार्थस्मरणशक्तेः प्रागस्तित्वं योग्यस्य द्रव्यस्योत्पत्तेः प्राक् सत्त्वविरोधात् । ततो द्रव्यमनसोऽस्तित्वस्य ज्ञापकं भवति तस्यापर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वानिरूपणमिति सिद्धम् । मनस इन्द्रियव्यपदेशः किन्न कृत इति चेन, इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम्' । उपभोक्तरात्मनोऽनिवृत्तकर्मसम्बन्धस्य परमेश्वरशक्तियोगादिन्द्रव्यपदेशमहतः स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्योपयोगोपकरणं लिङ्गमिति कथ्यते । न च मनस उपयोगोपकरणमस्ति । द्रव्यमन उपयोगोपकरणमस्तीति
भावमनका भी सत्व पाया जाता है, इसलिये जिसप्रकार अपर्याप्त कालमें भावेन्द्रियोंका सद्भाव कहा जाता है उसीप्रकार वहां पर भावमनका सद्भाव क्यों नहीं कहा?
समाधान-नहीं, क्योंकि, बाह्य इन्द्रियोंके द्वारा नहीं ग्रहण करने योग्य वस्तुभूत मनका अपर्याप्तिरूपं अवस्थामें अस्तित्व स्वीकार करलेने पर, जिसका निरूपण विद्यमान है ऐसे द्रव्यमनके असत्त्वका प्रसंग आ जायगा।
शंका-पर्याप्तिके निरूपणसे ही द्रव्यमनका अस्तित्व सिद्ध हो जायगा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, बाह्यार्थकी स्मरणशक्तिकी पूर्णतामें ही पर्याप्ति इस प्रकारका व्यवहार मान लेनेसे द्रव्यमनके अभावमें भी मनःपर्याप्तिका निरूपण बन जाता है । बाह्य पदार्थोकी स्मरणरूप शक्तिके पहले द्रव्यमनका सद्भाव बन जायगा ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, द्रव्यमनके योग्य द्रव्यकी उत्पत्तिके पहले उसका सत्त्व मान लेनेमें विरोध आता है। अतः अपर्याप्तिरूप अवस्थामें भावमनके अस्तित्वका निरूपण नहीं करना द्रव्यमनके अस्तित्वका शापक है, ऐसा समझना चाहिये।
शंका-मनको इन्द्रिय संज्ञा क्यों नहीं दी गई ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इन्द्र अर्थात् आत्माके लिंगको इन्द्रिय कहते हैं। जिसके कर्मोंका संबन्ध दूर नहीं हुआ है, जो परमेश्वररूप शक्तिके संबन्धसे इन्द्र संज्ञाको धारण करता है, परंतु जो स्वतः पदार्थों को ग्रहण करने में असमर्थ है ऐसे उपभोक्ता आत्माके उपयोगके उपकरणको लिंग कहते हैं। परंतु मनके उपयोगका उपकरण पाया नहीं जाता है, इसलिये मनको इन्द्रिय संज्ञा नहीं दी गई।
शंका-उपयोगका उपकरण द्रव्यमन तो है ?
१ स. सि. १, १४.
२ इन्द्र आत्मा, तस्य कर्ममलीमसस्य स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्याथोंपलम्भने यहि तदिन्द्रियमित्युच्यते । त. रा. वा. १. १४. १.
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