Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ३६.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं
[२६१ चेन्न, शेषेन्द्रियाणामिव बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वाभावतस्तस्येन्द्रलिङ्गत्वानुपपत्तेः । अथ स्यादर्थालोकमनस्कारचक्षुर्व्यः सम्प्रवर्तमान रूपज्ञानं समनस्केषूपलभ्यते तस्य कथममनस्केष्वाविर्भाव इति नैष दोषः, भिन्नजातित्वात् ।।
इन्द्रियेषु गुणस्थानानामियत्ताप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह
एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया असण्णिपंचिंदिया एकम्मि चेव मिच्छाइट्टिहाणे ॥ ३६ ॥
एकस्मिन्नेवेति विशेषणं द्वयादिसंख्यानिराकरणार्थम् । शेपगुणस्थाननिरसनार्थ मिथ्यादृष्ट युपादानम् । एइंदिएसु सासणगुणहाणं पि सुणिज्जदि तं कधं घडदे ? ण, एदम्हि सुत्ते तस्स णिसिद्ध तादो । विरुद्धत्थाणं कधं दोण्हं पि सुत्तत्तणमिदि ण,
समाधान- नहीं, क्योंकि, जिसप्रकार शेष इन्द्रियोंका बाह्य इन्द्रियोंसे ग्रहण होता है उसप्रकार मनका नहीं होता है, इसलिये उसे इन्द्रका लिंग नहीं कह सकते हैं।
शंका-पदार्थ, प्रकाश, मन और चक्षु इनसे उत्पन्न होनेवाला रूप-ज्ञान समनस्क जीवों में पाया जाता है, यह तो ठीक है। परंतु अमनस्क जीवों में उस रूप-ज्ञानकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, समनस्क जीवोंके रूप ज्ञानसे अमनस्क जीवोंका रूप-ज्ञान भिन्न जातीय है।
अब इन्द्रियों में गुणस्थानोंकी निश्चित संख्याके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
एकेन्द्रिय, द्वन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मिथ्याष्टि नामक प्रथम गुणस्थानमें ही होते हैं ॥३६॥
दो, तीन आदि संख्याके निराकरण करनेके लिये सूत्रमें एक पदका ग्रहण किया है । तथा अन्य गुणस्थानोंके निराकरण करनेके लिये मिथ्यादृष्टि पदका ग्रहण किया है।
शंका- एकेन्द्रिय जीवोंमें सासादन गुणस्थान भी सुनने में आता है, इसलिये उनके केवल एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके कथन करनेसे वह कैसे बन सकेगा?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इस खंडागम-सूत्रमें एकेन्द्रियादिकोंके सासादन गुणस्थानका निषेध किया है।
शंका--जब कि दोनों वचन परस्पर विरोधी हैं तो उन्हें सूत्रपना कैसे प्राप्त हो
१स. सि. १. १४। ते. रा. वा. १. १४. २. अनयोाख्या विशेषपरिज्ञानायानुसन्धेया।
२ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियादिषु चतुरिन्द्रियपर्यन्तेषु एकमेव मिथ्याष्टिस्थानम् । असंक्षिषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । स. सि. १, ८.
३ येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यतेxx स. सि. १.८. जे पुण देवसासणा एइंदिएमुप्पज्जति ति
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