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१, १, ३३.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं
[२४७ कानि तानि पञ्चेन्द्रियाणीति चेत्स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि । इमानि स्पर्शमादीनि करणसाधनानि । कुतः ? पारतन्यात् । इन्द्रियाणां हि लोके दृश्यते च पारसन्ध्यविवक्षा आत्मनः स्वातन्त्र्यविवक्षायाम्, अनेनाक्ष्णा सुष्ठु पश्यामि, अनेन कर्णेन सुष्टु शृणोमीति । ततो वीर्यान्तरायश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भाः च्छृणोत्यनेनेति श्रोत्रम् । कर्तृसाधनं च भवति स्वातन्त्र्यविवक्षायाम् । दृश्यते चेन्द्रियाणां लोके खातन्त्र्यविवक्षा, इदं मेऽक्षि सुष्ठु पश्यति, अयं मे कर्णः सुष्टु शृणोतीति । ततः पूर्वोक्तहेतुसन्निधाने सति भृणोतीति श्रोत्रम्। कोऽस्य विषयः ? शब्दः । यदा द्रव्यं प्राधान्येन विवक्षितं तदेन्द्रियेण द्रव्यमेव सन्निकृष्यते, न ततो व्यतिरिक्ताः स्पर्शादयः केचन सन्तीति एतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं शब्दस्य युज्यत इति, शब्द्यत इति शब्दः । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेः औदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनं शब्दः. शब्दनं शब्द इति । कुत एतेषामाविर्भाव इति चेद्वीर्यान्त
शंका-वे पांच इन्द्रियां कौन कौन हैं ?
समाधान- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। ये स्पर्शनादिक इन्द्रियां करणसाधन हैं, क्योंकि, वे परतन्त्र देखी जाती हैं। लोकमें आत्माकी स्वातन्त्र्यविवक्षा होने पर इन्द्रियोंकी पारतन्त्र्यविवक्षा देखी जाती है। जैसे, मैं इस आंखसे अच्छी तरह देखता हूं, इस कानसे अच्छी तरह सुनता हूं। इसलिये वीर्यान्तराय और श्रोत्र इन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशम तथा आंगोपांग नामकर्मके आलम्बनसे जिसके द्वारा सुना जाता है, उसे श्रोत्र-इन्द्रिय कहते हैं। तथा स्वातन्त्र्यविवक्षामें कर्तृसाधन होता है, क्योंकि, लोकमें इन्द्रियोंकी स्वातन्त्र्यविवक्षा भी देखी जाती है। जैसे, यह मेरी आंख अच्छी तरह देखती है, यह मेरा कान अच्छी तरह सुनता है। इसलिये पहले कहे गये हेतुओंके मिलने पर जो सुनती है उसे श्रोत्र-इन्द्रिय कहते हैं।
शंका-इसका विषय क्या है ?
समाधान-शब्द इसका विषय है । जिस समय प्रधानरूपसे द्रव्य विवक्षित होता है, उस समय इन्द्रियों के द्वारा द्रव्यका ही ग्रहण होता है। उससे भिन्न स्पर्शादिक कोई चीज नहीं हैं। इस विवक्षामें शब्दके कर्मसाधनपना बन जाता है । जैसे, 'शब्द्यते ' अर्थात् जो ध्वनिरूप हो वह शब्द है । तथा जिस समय प्रधानरूपसे पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्यसे पर्यायका भेद सिद्ध हो जाता है, अतएव उदासीनरूपसे अवस्थित भाषका कथन किया जानेसे शब्द भावसाधन भी है। जैसे, 'शब्दनम् शब्दः' अर्थात् ध्वनिरूप क्रियाधर्मको शब्द कहते हैं। पाताज्जाता उपपातजाः । अथवा उपपाते भवा औपपातिका देवा नारकाच । आचा. नि. पृ. ६३. सम्पूर्णावयवः परिस्पंदादिसामोपलक्षितः पोतः। शुक्रशोणितपरिवरणमुपात्तकाठिन्यं नखत्वक्सदृशं परिमंडलमंडं, अंडे जाताः अंडजाः। जालवत्प्राणिपरिवरणं विततमांसशोणितं जरायुः, जरायो जाताः जरायुजाः । त. रा. वा. पृ.१००,१०१.
१ प्रबन्धोऽयं त. रा. वा. २. १९-२० वा. १.१ व्याख्याभ्यां समानः । .
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