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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ३३. रायस्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमे सति अङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भे पञ्चेन्द्रियजातिकर्मोदयवशवर्तितायां च सत्यां पञ्चानामिन्द्रियाणामाविर्भावो भवेदिति । नेदं व्याख्यानमत्र प्रधानम्, 'एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदयादेकद्वित्रिचतुःपञ्चन्द्रिया भवन्ति' इति भावसूत्रेण सह विरोधात् । ततः एकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयादेकेन्द्रियः, द्वीन्द्रियजातिनामकर्मोदयाद् द्वीन्द्रियः, त्रीन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्रीन्द्रियः, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्मोदयाच्चतुरिन्द्रियः, पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्पश्चेन्द्रियः, एषोऽर्थोत्र प्रधानं निरवद्यत्वात् । न सन्तीन्द्रियाणि येषां तेऽनिन्द्रियाः । के ते ? अशरीराः सिद्धाः । उक्तं च
ण वि इंदिय-करण-जुदा अवग्गहादीहि गाहया अस्थे ।
णेव य इंदिय-सोक्खा अणिंदियाणंत-णाण-सुह। ।। १४० ॥ तेषु सिद्धेषु भावेन्द्रियस्योपयोगस्य सत्वात्सेन्द्रियास्त इति चेन्न, क्षयोपशमजनिशंका--इन पांचों इन्द्रियोंकी उत्पत्ति कैसे होती है ?
समाधान-वीर्यान्तराय और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्रेन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशम होने पर, आंगोपांग नामकर्मके आलम्बन होने पर, तथा पंचेन्द्रियजाति नामकर्मके उदयकी वशवर्तिताके होने पर पांचों इन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। फिर भी वीर्यान्तराय और स्पर्शन इन्द्रियावरण आदिके क्षयोपशमसे एकेन्द्रिय आदि जीव होते हैं, यह व्याख्यान यहां पर प्रधान नहीं है, क्योंकि, 'एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजाति नामकर्मके उदयसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव होते हैं ' भावानुगमके इस कथनसे पूर्वोक्त कथनका विरोध आता है। इसलिये एकेन्द्रियजाति नामकर्मके उदयसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियजाति नामकमके उदयसे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रियजाति नामकर्मके उदयसे त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति नामकर्मके उदयसे चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजाति नामकर्मके उदयसे पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं, यही अर्थ यहां पर प्रधान है, क्योंकि, यह कथन निर्दोष है।
जिनके इन्द्रियां नहीं पाई जाती हैं उन्हें अनिन्द्रिय जीव कहते हैं। शंका-वे कौन हैं ? समाधान- शरीररहित सिद्ध अनिन्द्रिय हैं। कहा भी है
वे सिद्ध जीव इन्द्रियोंके व्यापारसे युक्त नहीं हैं और अवग्रहादिक क्षायोपशमिक शानके द्वारा पदार्थोंको ग्रहण नहीं करते हैं। उनके इन्द्रिय-सुख भी नहीं है, क्योंकि, उनका अनन्त झान और अनन्त सुख अनिन्द्रिय है ॥ १४०॥
शंका-उन सिद्धोंमें भावेन्द्रिय और तज्जन्य उपयोग पाया जाता है, इसलिये वे इन्द्रियसहित हैं ?
१ गो. जी. १७४.
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