Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२५६ ] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, ३४. निष्पत्तिस्तु पुनः क्रमेण । एतासामनिष्पत्तिरपर्याप्तिः ।
पर्याप्तिप्राणयोः को भेद इति चेन, अनयोहिमवद्विन्ध्ययोरिव भेदोपलम्भात् । यत आहारशरीरेन्द्रियानापानभाषामनःशक्तीनां निष्पत्तेः कारणं पर्याप्तिः । प्राणिति एभिरात्मेति प्राणाः पञ्चन्द्रियमनोवाकायानापानायूंषि इति । भवन्त्विन्द्रियायुष्कायाः प्राणव्यपदेशभाजः तेषामाजन्मन आमरणाद्भवधारणत्वेनोपलम्भात् । तत्रैकस्याप्यभावतोऽसुमतां मरणसंदर्शनाच्च । अपि तूच्छासमनोवचसां न प्राणव्यपदेशो युज्यते तान्यन्तरणापि अपयोप्तावस्थायां जीवनोपलम्भादिति चेन्न, तैर्विना पश्चाजीवतामनुपलम्भतस्तेषामपि प्राणत्वाविरोधात् । उक्तं च
बाहिर-पाणेहि जहा तहेव अब्भंतरेहि पाणेहि । जीवंति जेहि जीवा पाणा ते होंति बोद्धव्वा ॥ १४१ ॥
होता है, क्योंकि, जन्म समयसे लेकर ही इनका अस्तित्व पाया जाता है। परंतु पूर्णता क्रमसे होती है । तथा इन पर्याप्तियोंकी अपूर्णताको अपर्याप्ति कहते हैं। · शंका-- पर्याप्ति और प्राणमें क्या भेद है ?
समाधान-नहीं, क्योंक, इनमें हिमवान् और विन्ध्याचल पर्वतके समान भेद पाया जाता है । आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनापान, भाषा और मनरूप शक्तियोंकी पूर्णताके कारणको पर्याप्ति कहते हैं। और जिनके द्वारा आत्मा जीवन संज्ञाको प्राप्त होता है उन्हें प्राण कहते हैं। यही इन दोनों में भेद है। वे प्राण पांच इन्द्रियां मनोवल, वचनबल कायबल, आनापान और आयुके भेदसे दश प्रकारके हैं.
__शंका-पांचों इन्द्रियां, आयु और कायबल ये प्राण संज्ञाको प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि, वे जन्मसे लेकर मरणतक भव (पर्याय) को धारण करनेरूपसे पाये जाते हैं। और उनमेंसे किसी एकके अभाव होने पर मरण भी देखा जाता है । परंतु उच्यास, मनोबल और वचनबल इनको प्राण संक्षा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि, इनके विना भी अपर्याप्त अवस्थामें जीवन पाया जाता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उच्छास, मनोवल और वचनबलके विना अपर्याप्त अवस्थाके पश्चात् पर्याप्त अवस्थामें जीवन नहीं पाया जाता है, इसलिये उन्हें प्राण मानने में कोई विरोध नहीं आता है। कहा भी है
जिसप्रकार नेत्रोंका खोलना, बन्द करना, वचनप्रवृत्ति, आदि बाह्य प्राणोंसे जीव जीते
१ पञ्जत्तीपट्ठवणं जुगवं तु कमेण होदि णिवणं । अंतोमुहुत्तकालेणहियकमा तचियालावा ॥ गो. जी. १२०. २ गो. जी. १२९ टीकानुसन्धेया।
३ गो. जी. १२९. तत्र जीवंति' इति स्थाने । प्राणति ' इति पाठः । पौदलिकद्रव्येन्द्रियादिव्यापाररूपाः द्रव्यप्राणाः। तन्निीमत्तभूतज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमादिविजेंभितचेतनब्यापाररूपा भावप्राणाः । जी. प्र.टी.
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