Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ३४.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं
[ २५३ सरीरपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । बेइंदिय-पज्जत्तयस्स जहणिया
ओगाहणा असंखेज्जगुणा। तेइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदिय-पज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा संखेज्जगुणा। तेइंदिय-चउरिदिय-बेइंदिय-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर-पांचंदिय-अपज्जत्यस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । तस्सेव पज्जत्तयस्स वि संखेज्जगुणा' त्ति ।
परैमूर्तद्रव्यैरप्रतिहन्यमानशरीरनिवर्तकं सूक्ष्मकर्म । तद्विपरीतशरीरनिवर्तकं बादरकर्मेति स्थितम् । तत्र बादराः सूक्ष्माश्च द्विविधाः, पर्याप्ताः अपर्याप्ता इति । पर्याप्त
अवगाहनासे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । इससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी है । इससे त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना उत्तरोत्तर संख्यातगुणी है। पंचेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहनासे त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना उत्तरोत्तर संख्यातगुणी है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहनासे त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना उत्तरोत्तर संख्यातगुणी है।
- इस उपर्युक्त कथनसे यह बात सिद्ध हुई कि जिसका मूर्त पदार्थोंसे प्रतिघात नहीं होता है ऐसे शरीरको निर्माण करनेवाला सूक्ष्म नामकर्म है, और उससे विपरीत अर्थात् मूर्त पदार्थोंसे प्रतिघातको प्राप्त होनेवाले शरीरको निर्माण करनेवाला बादर नामकर्म है।
विशेषार्थ- ऊपर जो सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनासे लेकर पंचेन्द्रिय पर्याप्ततक जीवोंकी उत्कृष्ट अवगाहनाका क्रम बतला आये हैं, उसे देखते हुए यह सिद्ध होता है कि सूक्ष्म जीवोंकी मध्यम अवगाहना बादरोंसे भी आधिक होती है। इसलिये छोटी बड़ी अवगाहनासे स्थूलता और सूक्ष्मता न मानकर स्थूल और सूक्ष्म कर्मके उदयसे सप्रतिघात और अप्रतिघातवाले शरीरको बादर और सूक्ष्म कहते हैं। तथा ऊपर जो वेदनाखण्डके सूत्र उद्धृत किये हैं उनमें सप्रतिष्ठित बादर वनस्पतिसे अप्रतिष्ठित बादर वनस्पतिका स्थान स्वतंत्र माना है। फिर भी यहां 'सव्वत्थोवा' इत्यादि उद्धृत सूत्रमें सप्रतिष्ठितके स्थानको अप्रतिष्ठितके स्थानमें अन्तर्भूत करके सप्रतिष्ठित वनस्पतिका स्वतन्त्र स्थान नहीं बतलाया है।
इनमें, बादर और सूक्ष्म दोनों ही प्रत्येक दो दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त ।
१ वे. खै. सू. २९-९३. सहुमणिवातेआभूवातेआपुणिपदिदि इदरं । बितिचपमादिलाणं एवाराण तिसेटी य ॥ अपदिहिदपत्तेयं बितिचपतिचबिअपदिहिद सयलंतिचबिअपदिहिद च य सयलं बादालगुणिदकमा ॥ अनरमपुण्णं पढमं सोलं पुणं विदियतदियोली। पुण्णिदरपुण्णयाणं जहण्णमुक्कस्समुक्कस्सं ॥ पुण्णजहण्णं तत्तो वरं अषुण्णस्स पुण्ण उकस्सं । बीपुण्णजहण्णो त्ति असंखं संखं गुणं ततो ॥ सुहमेदरगुणगारो आवलिपल्ला असंखभागो दु । सहाणे सेदिगया अहिया तत्थेगपडिभागो । गो. जी. ९७-१०१.
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