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२४६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १३० विषयश्चेद्वर्णः। अयं वर्णशब्दः कर्मसाधनः । यथा यदा द्रव्यं प्राधान्येन विवक्षितं तदेन्द्रियेण द्रव्यमेव सनिकृष्यते, न ततो व्यतिरिक्ताः स्पर्शादयः सन्तीत्येतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं स्पर्शादीनामवसीयते, वर्ण्यत इति वर्णः। यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेरौदासीन्यावस्थित भावकथनाद्भावसाधनत्वं स्पर्शादीनां युज्यते वर्णनं वर्णः । कुत एतेषामुत्पत्तिश्चेद्वीर्यान्तरायस्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरावरणक्षयोपशमे सति शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्धकोदये चाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भे चतुरिन्द्रियजातिकर्मोदय. वशवर्तितायां च सत्यां चतुर्णामिन्द्रियाणामाविर्भावो भवेत् । पश्च इन्द्रियाणि येषां ते पश्चेन्द्रियाः। के ते ? जरायुजाण्डजादयः । उक्तं च
सस्सेदिम-सम्मुच्छिम उम्भेदिम-ओववादिया चेव । रस-पोदंड जरायुज णेया पंचिंदिया जीवा ॥ १३९ ॥
समाधान-वर्ण इस इन्द्रियका विषय है । यह वर्ण शब्द कर्मसाधन है । जैसे, जिस समय प्रधानरूपसे द्रव्य विवक्षित होता है, उस समय इन्द्रियसे द्रव्य का ही ग्रहण होता है, क्योंकि, उससे भिन्न स्पर्शादिक पर्यायें नहीं पाई जाती हैं । इसलिये इस विवक्षामें स्पर्शादिकके कर्मसाधन जाना जाता है । उस समय जो देखा जाय उसे वर्ण कहते हैं, ऐसी निरुक्ति करना चाहिये । तथा जिस समय पर्याय प्रधानरूपसे विवक्षित होती है, उस समय द्रव्यसे पर्यायका भेद बन जाता है, इसलिये उदासीनरूपले अवस्थित जो भाव है, उसीका कथन किया जाता है । अतएव स्पर्शादिकके भावसाधन भी बन जाता है । उस समय देखनेरूप धर्मको वर्ण कहते हैं ऐसी निरुक्ति होती है।
शंका-इन चारों इन्द्रियोंकी उत्पत्ति किस कारणसे होती है ?
समाधान-वीर्यान्तराय और स्पर्शन, रसना, घ्राण तथा चक्षु इन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशम, शेष इन्द्रियावरण सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदय, आंगोपांग नामकर्मके उदयका आलम्बन और चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्मके उदयकी वशवर्तिताके होने पर चार इन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है।
जिनके पांच इन्द्रियां होती हैं उन्हें पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। शंका-वे पंचेन्द्रिय जीव कौन कौन हैं ? समाधान-जरायुज और अण्डा आदिक पंचेन्द्रिय जीव हैं। कहा भी है
स्वेदज, संमूछिम, उद्भिज्ज, औपपादिक, रसज, पोत, अंडज और जरायुज, ये सब पंचेन्द्रिय जीव जानना चाहिये ॥ १३९ ॥
१ सन्दर्भोऽयं त. रा. वा. १. १९-२० वा. १-१. ध्याख्याभ्यां समानः।
२से बेमि सेतिमे तसा पाणा, जहा, अंडया पोयया जराउआ रसया संसेयया समुच्छिमा उभियया उनवाइया, एस संसारेत्ति पच्चद। आचाः मू. ४९. उपत्युपपद्यतेऽस्मिनित्युपपादः। त. रा. बा. पृ. ९८. उप
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