Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२४० ] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, ३३. गत इति । तत्रेह विवक्षातोऽवसानार्थो वेदितव्यः । वनस्पत्यन्तानां वनस्पत्यवसानानामिति सामीप्यार्थः किन्न गृह्यते ? वनस्पत्यन्तानां वनस्पतिसमीपानामित्यर्थे गृह्यमाणे वायुकायानां त्रसकायानां च सम्प्रत्ययः प्रसज्येत 'पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसाः' इत्यत्र तयोरेव सामीप्यदर्शनात् । अयमन्तशब्दः सम्बन्धिशब्दत्वात् कांश्चित्पूर्वानपेक्ष्य वतेते । ततोऽर्थादादिसम्प्रत्ययो भवति तस्मादयमर्थोऽवगम्यते पृथिव्यादीनां वनस्पत्यन्तानामेकमिन्द्रियमिति । एवमपि पृथिव्यादीनां वनस्पत्यन्तानां स्पर्शनादिष्वन्यतममेकमिन्द्रियं प्रामोत्यविशेषादिति चेन्नैष दोषः, अयमेकशब्दः प्राथम्यवचनम् ' स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि' इत्यत्रतनप्राथम्यमाश्रित इति । वीर्यान्तरायस्पर्शनेन्द्रियावरण क्षयोपशमे सति शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्धकोदये चैकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयवशवर्तितायां च सत्यां स्पर्शममेकमिन्द्रियमाविर्भवति ।
उनमेंसे यहां पर विवक्षासे अन्त शब्दका अवसानरूप अर्थ जानना चाहिये।
शंका-'वनस्पत्यन्तानामेकम् ' इसमें आये हुए अन्त पदका 'वनस्पतिके समीपवर्ती जीवोंके एक स्पर्शन-इन्द्रिय होती है ' इसप्रकार सामीप्य-वाचक अर्थ क्यों नहीं लेते?
समाधान- यदि 'वनस्पत्यन्तानामेकम् ' इस सूत्रमें आये हुए अन्त शब्दका समीप अर्थ लिया जाय तो उससे वायुकायिक और त्रसकायिकका ही शान होगा, क्योंकि, 'पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसाः' इस वचनमें वायुकायिक और त्रसकायिक ही वनस्पतिके समीप दिखाई देते हैं। यह अन्त शब्द संबन्धी शब्द होनेसे अपनेसे पूर्ववर्ती कितने ही शब्दोंकी अपेक्षा करके प्रवृत्ति करता है, और इससे अर्थवश आदिका ज्ञान हो जाता है। उससे यह अर्थ मालूम पड़ता है कि पृथिवीकायिकसे लेकर वनस्पति पर्यन्त जीवोंके एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है।
शंका-ऐसा मान लेने पर भी पृथिवीसे लेकर वनस्पति पर्यन्त जीवोंके स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियोंमेंसे कोई एक इन्द्रिय प्राप्त होती है, क्योंकि, 'वनस्पत्यान्तानामेकम् ' इस सूत्रमें आया हुआ एक पद स्पर्शन-इन्द्रियका बोधक तो है नहीं, वह तो सामान्यसे संख्यावाची है, इसलिये पांच इन्द्रियों से किसी एक इन्द्रियका ग्रहण किया जा सकता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह एक शब्द प्राथम्यवाची है, इसलिये उससे 'स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि' इस सूत्रमें आई हुई सबसे प्रथम स्पर्शन-इन्द्रियका ही ग्रहण होता है।
वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशम होने पर, रसना आदि शेष इन्द्रियावरणके सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदय होने पर तथा एकेन्द्रियजाति नामकर्मके उदयकी वशवर्तिताके होने पर स्पर्शन एक इन्द्रिय उत्पन्न होती है।
१ त. सू. २. १९.
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