Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 355
________________ २३६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ३३. जव-णालिया मसूरी चंदद्धइमुत्त-फुल्ल-तुल्लाई । इंदिय-संठाणाई पस्सं पुण णेय-संठाणं ॥ १३४ ॥ उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम्, येन निवृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम् । तद् द्विविधं बाह्याभ्यन्तरभेदात् । तत्राभ्यन्तरं कृष्णशुक्लमण्डलम् । बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि। एवं शेषेन्द्रियेषु ज्ञेयम् । लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् । इन्द्रियनिवृत्तिहेतुः क्षयोपशमविशेषो लब्धिः । यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते स ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषो लब्धिरिति विज्ञायते । तदुक्तनिमित्तं प्रतीत्योत्पद्यमानः आत्मनः परिणामः उपयोग इत्यपदिश्यते । तदेतदुभयं भावेन्द्रियम् । उपयोगस्य तत्फलत्वादिन्द्रियव्यपदेशानुपपत्ति श्रोत्र-इन्द्रियका आकार यवकी नालीके समान है, चक्षु-इन्द्रियका मसूरके समान, रसना-इन्द्रियका आधे चन्द्रमाके समान, घ्राण-इन्द्रियका कदम्बके फूलके समान आकार है और स्पर्शन-इन्द्रिय अनेक आकारवाली है ॥ १३४॥ जिसके द्वारा उपकार किया जाता है, अर्थात् जो निर्वृत्तिका उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं। वह बाह्य-उपकरण और अभ्यन्तर-उपकरणके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे कृष्ण और शुक्ल मण्डल नेत्र-इन्द्रियका अभ्यन्तर-उपकरण है, और दोनों पलकें तथा दोनों नेत्ररोम ( बरोनी) आदि उसके बाह्य-उपकरण हैं । इसीप्रकार शेष इन्द्रियों में जानना जाहिये । लब्धि और उपयोगको भावेन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियको निर्वृत्तिका कारणभूत जो क्षयोपशम-विशेष है उसे लब्धि कहते हैं। अर्थात् जिसके सन्निधानसे आत्मा द्रव्येन्द्रियकी रचनामें व्यापार करता है, ऐसे शानावरण कर्मके क्षयोपशम-विशेषको लब्धि कहते हैं। और उस पूर्वोक्त निमित्तके आलम्बनसे उत्पन्न होनेवाले आत्माके परिणामको उपयोग कहते हैं। .......... १ चक्ख सोदं घाणं जिभायारं मसूरजवणाली । अतिमुत्तखुरप्पसमं फासं तु अणेयसंठाणं ॥ गो. जी. १७१. २पाठोऽयं त. रा. वा. २. १७. वा. ५-७ व्याख्यया समानः | ३ त. सू. २. १८. ४ अर्थग्रहणशक्तिर्लब्धिः । लघी. स्व. वि. १. ५. । गो. जी., जी. प्र., टी. १६५. लम्भने लब्धिः । कः पुनरसौ? ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषः । स. सि. २. १८. इन्द्रियनिर्वृत्तिहेतुः क्षयोपशमविशेषो लब्धिः । त. रा. वा. २. १८. १. स्वार्थसंवियोग्यतैव च लब्धिः । त. श्लो. वा. २. १८. आवरणक्षयोपशमप्राप्तिरूपा अर्थग्रहणशत्तिर्लब्धिः । स्या. रत्ना. पृ. ३४४. ५ अर्थग्रहणव्यापार उपयोगः। गो. जी., जी. प्र., टी. १६५. उपयोगः पुनः अर्थग्रहणव्यापारः । लघी. स्व. वि. १. ५. यत्सनिधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृत्ति प्रति व्याप्रियते तन्निमित्त आत्मनः परिणाम उपयोगः। स. सि.२.१८.त. रा. वा. २. १८. २. उपयोगः प्रणिधानम् । त. भा. २. १९. उपयोगस्तु रूपादिग्रहणव्यापारः । स्या. रत्ना. पृ. ३४४. ६ उपयोगस्य फलत्वादिन्द्रियव्यपदेशानुपपत्तिरिति चेन, कारणधर्मस्य कार्यानुवृत्तेः । त. रा. वा. २. ५८.३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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